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वसुदेव हिंडी.
आ अपूर्व ग्रंथ भारतवर्षना साहित्य मंथरत्नोमांनुं एक रत्न छे. पिशाचभाषामां गुणाइय कविए नरवाहन राजाना चारित्रयी प्रथित एक बृहद्कथाः रचो छे. आ ग्रंथ पण श्री संत्रासमणीए वमुदेवना चरित्रधी प्रश्रित प्राकृतभाषा लम्भकमयी रचेल गृहस्था छे. गाय कविनी वृहत्कथा हालमां अप्राप्य छे, अने वमुदेवाहंडीनो केटोक भाग हाल मळी आवे छे.
पाटण, राधापुर, अने अनदावाद विगेरेना पुस्तक भंडारोमा जे भाग मळी आवे छे. ते त्रण खंड छे. अने श्लोकनुं प्रमाण कुल पचीसेक हजार छे.
ग्रंथ जोवाथी मालूम पडी शके के केटलो भाग अधुरो रहे छे ? संभळाय छे के कुल लंभक एकसोने सीत्तेर हता. तेमांना हाल केटला प्राप्य छे अने केटला नथी ते पण ग्रंथ जोवाधीज बनी शके तेधुं छे.
श्रीजा खंडना कर्ता ग्रंथावळीमां बीजा आचार्य लख्या छे, अने ते बहु प्राचीन नधी; पण अर्वाचीन छे. तो प्रश्न ए उठे छे के बीजा आचार्य से ग्रंथ लख्यो छे, ते एकज विषयनो स्वतंत्र ग्रंथ छे ? के मुळ ग्रंथकारे अधुरो राखेला पुरो कर्यो छे ? के कोइपण
खंडित थयेल ग्रंथने करीबी अखंड कर्यो छे ? तेमां बीजो पक्ष संभवतो नथी.
१ लम्भाद्दिकताद्भुताश्री नरवाहनदत्तादिचरितवद् वृहत्कथा । तथा च---
"लम्भाकिताना विद्याभाषामयी महाविषथा । नरवाहनत्तदेश्वरित व बृहत्कथा भवति ॥ १ ॥ " काव्यानुशासन अने विवेक । बृहत्कथा] ए नाम अमुक बनुं नथी. पण काव्ययोनी अनुक जातिनुं छे. लक्षगान्तर्गत लोकमा पिशाचभाषामयत्व ए अन्य तत्समभाषाओनुं उपलक्षण है. तेजश्रीहेमचंद्राचायें स्वकृत लक्षगमां भावानो नियम सूचव्यो नधी, मात्र कोइना श्लोकमा छे. संशोधक.
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