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(४४४) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः।
प्रसन्नचित्ते शुनि संमुखस्थे संधिर्भवेयुद्धसमुद्यतानाम् ॥ पराङ्मुखे वाथ पलायमाने भंगो भटानां झटिति प्रदिष्टः॥ ॥ ७० ॥ युद्धार्थिनो नामयुगेन राज्ञोः पृथक्पृथग्यक्षयुगं प्रकल्प्य ॥ मुंचेत्तयोया बलिमत्ति जित्वा मध्यात्तयोस्तस्य जयो नृपस्य ॥ ७१ ॥ यद्याददाते न बलिं गृहीत्वा स्नेहान्वितौ भक्षयतोऽथ वोभौ॥ जयार्थिनोः स्यान्नृपयोस्तदानीमन्योन्यसंधानविधानबुद्धिः ॥ ७२ ॥ यन्नामकः श्वा प्रपलायनेच्छु यः स सत्रास इतींगितज्ञैः ॥ यत्रामधेयः पुनरस्तशंको न तस्य राज्ञो भयमस्ति चित्ते ॥ ७३॥
॥ टीका। निजं वामं चरणं प्रचर्वयन्योरमाहवं संग्राममाह ॥ ६९ ॥ प्रसन्नचित्ते इति ॥ शुनि सारमेये प्रसन्नचित्ते संमुखस्थे सति युद्धसमुद्यतानां संधिर्भवेत्। अथवा परा.
मुखे पलायमाने सति झटिति भटानां भंगः प्रदिष्टः प्रोक्तः ॥ ७० ॥ युद्धति ॥ यक्षयुगं भषणद्वितयं युद्धार्थनोः राज्ञो मयुगेन पृथक्पृथक्प्रकल्प्य यक्षयुगं मुंचेततस्तयोर्यक्षयुगयोर्मध्याद्यौ जित्वा बलिमत्ति तस्य नृपस्य जयो भवति ॥ ७१ ॥ यदीति।उभौ श्वानौ बालि गृहीत्वा यदि न आददातेन गृहीतः।अथवा स्नेहान्विताउभौ भक्षयतस्तदानीं जयार्थिनोः नृपयोः अन्योन्यसंधानविधानबुद्धिः परस्परमेलकरणमतिः स्यात ॥७२॥ यदिति ॥ यन्नामकः श्वा प्रपलायनेच्छः प्रपलायनं कर्तुमिच्छुः
॥भाषा ॥ कहहैं ऐसो जाननो ॥ ६९ ॥ प्रसन्नचित्ते इति ॥ खान प्रसन्नचित्त होय, सन्मुख आय ठाढो होय तो युद्धकर्तानके संधि होय. अथवा श्वान विमुख होय भाग जाय तो शीघ्रही योद्धारनको भंग होय ॥ ७० ॥ यति ॥ युद्धकर्ता दोनों राजानके नामसू दोय श्वान कल्पना करके उनकू बलिपिंडपै छोड दे उन दोनों श्वाननमेंसू जो जीत करके बलिदानकं भक्षण कर जाय वा राजाको जय होय ॥ ७१ ॥ यदीति ॥ दोनों श्वान बलि लेकरके जो नहीं ग्रहण करें अथवा दोनों बलिलेकरके स्नेहयुक्त होय भक्षण करन लगे तो दोनों राजानके परस्पर मिलाप करवेकी बुद्धि होय ॥ ७२ ॥ यदीति ॥ जा राजाके नामको श्वान भागवेकी इच्छा करतो होय वो राजा भययुक्त जाननो चाहिये. जा नामको श्वान निर्भय होय बा राजाके चित्तमें भय नहीं जाननो ॥ ७३ ॥
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