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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पिंगलारुतेऽधिवासनप्रकरणम् । ॥ टीका ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ( ३२९ ) दीप्तपंचकेन बंधने मरणं च शांते तद्विपर्ययः । इति शांतप्रकरणम्। अत्रान्योविशेषोऽ पि ज्ञेयः । यथा एका शांतदृष्टिः दीप्तदृष्टिश्च तत्र सम्मुखं सरलं दक्षिणमुच्चप्रदेशं सूर्य वा विलोकयंती शांतदृष्टिः अथ वा शांतफलं तदुपरिप्रक्षा पूर्वरम्यस्थानावलोकिनी च तथाऽशुभस्थलावलोकिनी अधोमुखदृष्टिश्च दीप्ता तथा पक्षिद्वयं भिन्नस्थानावस्थितं दृश्यते तच्छांतं परस्परमंगस्पर्श कुर्वन्यत्र दृश्यते तद्दीप्तम् ॥ इति वसंतराजटीकायां शाकुने पिंगलारुतेऽधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १ ॥ ॥ भाषा ॥ दिशामें लाभ. पश्चिम दिशा में चिंतित कार्यकी सिद्धि वायव्यदिशामें धनलाभ उत्तरदिशामें हानि. ईशानदिशा में भय. पूर्वदिशा में चिंता. आग्नेयी दिशामें कलह । या प्रकार और पूर्व दिशा कही हैं उनको भी फल जाननो सुंदरस्थान होय शुभ होय और वट, पिप्पल, आम, जामुन इनके वृक्ष और सुंदरस्थानमें वृक्ष होय सो महान्वृक्ष अत्यंत ऊंचो वृक्ष तालको तमालको खजूरका ये वृक्ष ऐसे ऐसे स्थान शांत हैं. और सूखा वृक्ष पवना. दिक करके पीडित उखडो हुयो जो जलो हुयो वृक्ष, राख, भस्म, मृत्तिकाके ठकिरा, हाड, कांटे, घरकी भीत, कोट, किलाकी भीत, और कडू ओ कांटेको वृक्ष, उजडो हुयो देश, ग्राम, देवमंदिर इन सबनकी दीप्तसंज्ञा है. और दक्षिणमाऊं चेष्टा करती होय दोनो पंखनकूं फैलाय करके मस्तक के ऊपर घरै और अंगमर्दन करती होय दक्षिण विभाग में देखती होय पवन न होय ऐसे स्थानमें निश्चित होय, शुभचेष्टा करती होय वा परस्पर खुजाय रही होय मैथुन करती होय देखबेवारेके सम्मुख देखती होय निकट आयजाय वा सम्मुख आयजाय जेमने अंगकूं खुजाय रही होय खुले हुये नेत्र होंय ओर पंख, उदर, कंट, नेत्र, चोंच, नासिका, शिर इनके जेमनेभाग में खुजायरही होय, शुभ हैं. और जितनी याकी बांई चेष्टा हैं वे सब अशुभ हैं. और भाग जाय वा मौन धारण करे होय ग्रहण करे होय ता भक्ष्य वस्तुको त्याग करदे वा और पक्षीके मुखमें भक्ष्यवस्तुको अर्पण करती होय. नेत्रनकूं मीचें होय देखबेवालेके विमुखगमन करती होंय और पक्षीनकरकेसहित युद्धकरती होय विट्मूत्रकरती होय नीचेकूं देखती होय इनलक्षणयुक्त पिंगला दीप्त जाननी अब इनके फल क हैं || दीप्तस्त्र करके कलह करावे गमन में दीप्तजायकर उद्वेग करावे. दीप्तदिशा में कष्ट करावे दीप्तस्थानमें होय तो स्थानभ्रंश करावें. दीप्तचेष्टा करके विग्रह करावे. ये पांचोही दीप्त होय तो बंधन में मरण होय और शांता होय तो इनफलनकूं विपरीत जानने ॥ सत्र ॥ इति शांतप्रकरणम् ॥
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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