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काकरुते स्थानस्थितप्रकरणम्। (३०१) शमाय तत्सूचितदुःखराशेः स्नानं बहिस्तत्क्षणमेव कुर्यात्॥ आत्मीयशक्त्याच सदक्षिणानि द्विजाय दद्याद्वसनानि तानि ॥ १२९ ॥ नयेदह शेषमपुण्यहान्या शयीत भूमावकृतानभक्ष्यः ॥ स्नात्वा प्रभाते विदधीत शांतिं दद्यात्स्वशक्त्या द्रविणं गुरुभ्यः ॥१३०॥ हविष्यभोजी नः भजेच्च नारी दिनानि सप्त त्रिगुणानि यावत् ॥ आकाकपातव्रतमादधीत बलिं च दद्यादलिभोजनेभ्यः॥ १३१ ॥ देशे तु यत्राद्धतमेतदुग्रमालोक्यते तत्र समापतंति ॥ अवृष्टिदुर्भिशभयोपसर्गचौराग्निशत्रूद्भवधर्मनाशाः ॥ १३२॥
॥ टीका ॥ धनापहाराः बुद्धिप्रणाशाः कुलतापवादाश्च नृणां भवति ॥ १२८ ॥ शमायेति ।। सूचितदुःखराशेः शमाय तत्क्षणमेव वहिः स्नानं कुर्यात् तथा आत्मीयशक्त्या सदक्षिणानि तानि वसनानि द्विजाय दद्यात् ॥ १२९ ॥ नयेदिति ॥ अहःशेषं नयेत् कया अपुण्यहान्या पुण्यहानिर्यथा न भवति तथेत्यर्थः । तथाऽकृतान्नभक्ष्यः भूमौ शयीत पुनः प्रभाते स्त्रात्वा शांति विदधीत गुरुभ्यः स्वशक्त्या द्रविणं दद्याच ॥ ॥२३० ॥ हविष्यति ॥ सप्त त्रिगुणानि एकविंशतिदिनानि यावत् हविष्यभोजी भवेत् नारी न भजेत् आकाकपातं व्रतं आदधीत बलिभोजनेभ्यो बलिं दद्यात् ।। ॥ १३१ ॥ देशे विति ॥ यत्र देशे एतदुग्रमद्भुतमालोक्यते अवृष्टिदुर्भिक्षभयोपस
॥ भाषा ॥
पहिले उत्पात देखबेवारे मनुष्यनकू होय ॥ १२८ ॥ शमायेति ॥ इतने दुःखनकी शांतिके लिये पूर्व कहे जे दोनों उत्पात तिनकू देखतेही तत्क्षण बहिःस्नान करै. ता पीछे अपनी शक्तिपूर्वक दक्षिणासहित वस्त्र ब्राह्मणके अर्थ दान करे ॥ १२९ ॥ नयेदिति ॥ दिन शेष रहे ताय पुण्यादिक करके व्यतीत करे, और अन्नादिक भोजन न कर. फिर रात्रिकू पृथ्वीमें शयन करें. फिर प्रातःकाल होय जब स्नान करके शांति करै. अपनी शक्तिलायक गुरुनके अर्थ धन देव ॥ १३० ॥ हविष्यति ॥ इक्कीस दिनताई हविष्यभोजन करै.. और स्त्रीसेवन न करै आकाकपात ब्रत करे. और काकनकू बलिदान देवे ॥ १३१॥ ॥ देशोत्वितिः॥ जा देशमें ये अद्भुत देखे ता देशमें बर्षा न होय. और दुर्भिक्ष, भय,
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