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काकरते दिक्चक्रप्रकरणम् ।
(२७९) यद्भाषितं शाकुनिकैर्विमिश्रं शुभाशुभं दिक्प्रहरक्रमेण ॥ तथा शुभं यच्छति दीप्तशब्दः श्रेयस्करः शांतरवस्तु काकः ॥ ४७ ॥ रम्ये खे दीप्तदिशि प्रपश्यञ्शांतां दिशं भूरिफलं ददाति ॥ तदेव तुच्छं वितरत्यशौचे दीप्तां स्थितः पश्यति दीप्तकाष्ठाम् ॥४८॥ यथोपदिष्टं फलमत्र दुष्टं तथैव तदीप्तदिशि स्थितः सन् ॥ ध्वांक्षो विरुक्षो विरवं करोति निरीक्षमाणः ककुभं प्रदीप्ताम् ॥ ४९ ॥ काकः प्रशांताभिमुखोतितुच्छं दीप्ताश्रितो दुष्टफलं ददाति ॥ शांताश्रितः शांतदिगीक्षणेन रूक्षारवोऽल्पं कथयत्यनिष्टम् ॥ ५० ॥
॥ टीका ॥
यदिति ॥दिक्प्रहरक्रमेण शाकुनिकैर्विमिदं शुभाशुभं यद्भाषितं तत्र दीप्तशब्दः काकः अशुभं यच्छति शांतरवश्च काकः श्रेयस्करः स्यात् ॥ ४७ ।। रम्य इति ।। दीतदिशि रम्ये खे सति शांतदिशं पश्यन्काकः भूरिफलं ददाति असौ काकः तदेव तु च्छं वितरति यः दीप्तस्थितः दीप्तकाष्ठां च पश्यति॥४ायथोपदिष्टमिति ॥ यथा येन प्रकारेण दुष्टमत्र फलमुपदिष्टं तेन प्रकारेण दीप्तदिशि स्थितः सन्ध्वाक्षो विरू क्षं विरवं प्रदीप्तां ककुभं निरीक्षमाणः करोति ॥४९॥ काक इति॥ प्राशांताभिमुखः काकः अतितुच्छं स्वल्पं फलं ददाति दीप्ताश्रितः दुष्टफलं ददाति शांताश्रितःशांत
॥ भाषा॥
॥ यदिति ॥ शकुनाचारीनने दिशाप्रहरके क्रमकर मिले वा शुभ अशुभ फल जो को उनदोनोंनमेंस दीप्तशब्द बोलवेवारो काक अशुभ देवे. और शांतशब्द बोले सो कल्याण करै ॥ ४७ ॥ रम्य इति ॥ दीप्तदिशामें स्थित होय शांत बोले शांतदिशामें दीखै तो काक बहुत फल देवे. और येही काक अपवित्रस्थानमें स्थित होय दीप्तदिशामें बैठो होय और दीप्तदिशामाऊं देखतो होय तो तुच्छ फल करै ॥ ४८ ॥ यथोपदिष्टमिति ॥ जो काक दीप्तदिशामें स्थित होय; रूखो शब्द करे, दीप्तदिशामें देखतो होय. तो दुष्ट फल करै ॥ ४९ ॥ काक इति ॥ शांतदिशामें मुख होय और दीप्तदिशामें बैठो होय तो काक अति तुच्छ दुष्ट फल देवै. और शांतदिशामें होय शांतदिशामें देखतो होय और
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