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(१४६) वसंतराजमाकुने-सप्तमो वर्गः। तारा भवेद्यद्यधिवासनस्य स्यादह्नि वामा शकुनेक्षणस्य । शुभं नराणामुपदर्थ सर्वतद्ब्रह्मपुत्री सहसा निहंति ॥१३६॥ प्रदक्षिणा यद्यधिवासने स्यानिरीक्ष्यमाणे शकुनेऽपि सैव ॥ तनिश्चित्तं चित्तगतं समस्तं समीहितं सिद्ध्यति मानवानाम् ॥१३७ ॥ पूजादिने वामगतिर्यदि स्याद्रामैव चेत्स्याच्छकुनेक्षणेऽपि ॥ चिकीर्षितं वस्तु तदा समस्तं ब्रवीत्यसौ सिदिमुखादपास्तम् ॥ १३८॥तारागतिर्यद्यधिवासने स्यान्निवर्तमानस्य च याति वामा ॥ मनोरथाः शाकुनिकस्य तस्य प्रयांति सिद्धिं सकलास्तदानीम् ॥ १३९ ॥
॥ टीका ॥ नाशों भवेत्स्यात् ॥ १३५ ॥ तारेति ॥ यदि अधिवासनस्य दिने ताराभवति पुनः शकुनेक्षणस्याहि वामा भवति तदा ब्रह्मपुत्री नराणां शुभमुपदर्य दर्शयित्वा सर्व सहसा निहंति विनाशयतीत्यर्थः ॥ १३६ ॥ प्रदक्षिणेनेति ॥ यदि अधिवासने शकुनस्यामंत्रणे प्रदक्षिणा भवति निरीक्ष्यमाणे शकुनेपि सैव भवति मानवानां चित्तगतं समस्तं समाहितं वांछितं तनिश्चितं सिध्यति सिद्धि प्राप्नोति ॥ १३७ ॥ पूजादिन इति ॥ यदि पूजा दिने अधिवासनदिने वामा गतिः स्यात् । शकुनेक्षणेऽपिवामैव चेत्स्यात्तदा चिकीर्षितं कर्तुमिष्टं समस्तं वस्तु सिद्धिमुखादपास्तं निरस्तमसौ ब्रवीति कथयति ॥ १३८ ॥ तारेति ॥ यद्यधिवासने तारागतिः स्यात् पुनः निवर्तमानस्य वामा याति तदानीं तस्य शाकुनिकस्य मनोरथाः सकलाः सिद्धि
॥ भाषा ॥ तीसरीमी वामा होय तो वाई समय धनजीवको नाश करै ॥ १३५ ॥ तारेति ॥ पूजन कर रह्यो होय वाकू दिनमेंही तारा दीखजाय फिर शकुनदेखती बिरियां वामा होय दिनमेही तो ब्रह्मपुत्री जो पोदकी सो मनुष्यनळू शुभ दिखाय करके फिर सर्व कार्य शीग्रही नाश कर है ॥ १३६ ॥ प्रदक्षिणेति ॥ जो पूजा करती समयमें जेमने माऊं दखिं, और फिर शकुनदेखती समयमें भी जेमनी दीखै तो मनुष्यनके चित्तमें जो बांछित होय सो निश्चयही सिद्ध होय ॥ १३७ ॥ पूजादिन इति ॥ जो पूजाके दिन तारा वामगति होय और शकन देखती समयमें जो वाम होय तो कार्यकी सिद्धि नहीं होय ॥ १३८ ॥ तारोति ।। जो पूजा समयमें तारागति दक्षिणा होय, फिर पूजासूं निबढे पीछे वामा होजाय, तो शकुनीके
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