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रसराज महोदधि। (२७) पुष्य होय आदित्यको, जो लीजै यह मूल ॥ शुक्रवार की रोहिणी, गहन होय अनुकूल ॥ कृष्णपक्षकी अष्टमी, हस्त नक्षत्र जु होय ॥ अर्धरात्रिको जायके, मनकी शंका खोय ॥ धूप दीपदे लायकर, धरै दूधमें धोय ॥ जो काह नर नारिके, विषधर काटे होय ॥ विष उतरे सब तुरतही, जानि पिलावे सोय ॥ जो पिसिकर मुखमें तबै, सभामध्य नर जाय॥ हाँजी हाँजी सबकहै, जोइ कहै सो थाय ॥ चतुरलोग याविधि करै, कबहुँ न आवे आंच॥ एक जड़ीके युक्त सों, सबै नचावै नाच ॥ तांबा माहि मदायकै, कटिमें बांधे कोय ॥ नवें मास वहि नारिके, निश्चय बालक होय ॥ काजलसों घिसि आंजिये, मोहै सब संसार ॥ जो माँगे वह वस्तु कछु, सो लावे तत्कार ॥ जोघिसि पयके योगसों, लेपनकीजै अंग ॥ भूत प्रेत अरु यक्ष गण, लगे फिरें सब संग ॥ घिसिके रुई भिगायकर, बाती करे बनाय ॥ फेर भिगावे तेलसों, दीपक धरे जलाय ॥ होय अचंभो शयन तब, मृत्युकसभा देखाय ॥ मनमें ले स्तुति करे, सवही पूजे पाय ॥ जो घिसिये वह पीवसों, लेप शरीर बनाय॥ कैसाही होवे हठी, लावै प्रीत लगाय ॥
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