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(२८) रसराज महोदधि । मेष मूत्रसों रगरिकै, जो लेप द्वौ हाथ ॥ कहै दूरकी बात वह, सब मानो है साथ ॥ गोरोचनको लौंगसे, लिखिये जाको नाम ॥ मित्र होय वह तुर्तही, नहिं वैरीको काम ॥ बेल अर्कसों युक्तकर, अंजन लेय बनाय ॥ भूत प्रेत अरु डाकिनी, देखतही भगिजाय ॥ खांड संग जो रगरिकै, तलवातले लगाय ॥ आंखि मिजतकै पलकमें,सहस कोस रडिजाय॥ जो घिस आजै पीकसों, जादिश नज़र कराय॥ व्याधि परेसो छुट नहीं, कोटिन करै उपाय ॥ जो गुलाबसों रगरिकै, नाभी लेपकराय ॥ त्यहि शरीर घड़िचारमें, जागे सहज उपाय॥ फिरि वाकोले तेलसों, जो पिसि आंजे कोय॥ धन देखे पातालका, दैवी दृष्टी होय ॥ जो वापिनिके घीवसों, पिसि चुपरे सब देह ॥ तीर तुपक लागे नहीं, ज्यों बरसे घन मेह ॥ घिसिकै तिलके तेलमें, मर्दन करै शरीर ॥ देखे सब संसारको, महावीर रणधीर ॥ जो अलसीके तेलमें, घिसिये शहद मिलाय ॥ कूटकाट लेपन करै,कंचन तनु बजाय ॥ जो मुर्गीके बीटसों, अंधा आंजे कोय ॥ सात दिना जो आजही, दृष्टि चौगुनी होय ॥
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