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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवाह उसकी अभिव्यक्ति के निर्झर से झरता हुआ दिखाई देता है, इन-सब तत्त्वों के मिलन से जैन-साधकों का रहस्य परम रहस्य बन जाता है, जो गीतिकाव्य की आत्मा है। गीतिकाव्य में नामस्मरण और ध्यान का विशेष महत्त्व है। उनसे गेयात्मक तत्त्व में सघनता आती है। इसलिए जैन साधकों ने नाम सुमिरन और अजपा जाप को अपनी सहज साधना का विषय बनाया है। साधारण रूप से परमात्मा और तीर्थंकरों का नाम लेना सुमिरन है तथा माला लेकर उनके नाम का जप करना भी सुमिरन है। डॉ. पीताम्बर दत्त बड्थवाल ने सुमिरन के जो तीन भेद माने हैं, उन्हें जैन साधकों ने अपनी साधना में अपनाया है। उन्होंने बाह्यसाधन का खंडनकर अन्त:साधना पर बल दिया है। व्यवहार नय की दृष्टि से जाप करना अनुचित नहीं है, पर निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाह्य क्रिया माना है। तभी तो द्यानतराय जी ऐसे सुमिरन को महत्त्व देते हैं जिसमें असो सुमरन करिये रे भाई। पवन थंमै मन कितहु न जाई।। आनंदघन का भी यही मत है कि जो साधक आशाओं को मारकर अपने अन्त: करण में अजपा जाप को जगाते हैं, वे चेतन-मूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। इसीलिए सन्त आनंदघन भी सोऽहं को संसार का सार मानते हैं चेतन ऐसा ज्ञान विचारो। सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं अणु नबी या सारो।। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि हिन्दी जैन साहित्य में गीतिकाव्य का प्रमुख स्थान रहा है। उसमें वैयक्तिक भावात्मक अनुभूति की गहराई, आत्मनिष्ठता, सरसता और संगीतात्मकता आदि तत्त्वों का सन्निवेश सहज ही देखने को मिल जाता है। लावनी, भजन, गीत, पद आदि प्रकार का साहित्य इसके अन्तर्गत आता है। इसमें अध्यात्म, नीति, उपदेश, दर्शन, वैराग्य, भक्ति आदि का सुन्दर चित्रण मिलता है। कविवर बनारसीदास, बुधजन, द्यानतराय, दौलतराम, भैया भगवतीदास आदि कवियों का गीति-साहित्य विशेष उल्लेखनीय है। जैन गीतिकाव्य सूर, तुलसी, मीरा अदि के पद-साहित्य से किसी प्रकार कम नहीं है। भक्ति-सम्बन्धी पदों में सूर, तुलसी के समान दास्य-सख्य-भाव, दीनता, पश्चात्ताप आदि भावों का सुन्दर और सरस चित्रण है। जैन कवियों के आराध्य राम के समान शक्ति और सौन्दर्य से समन्वित या कृष्ण के समान शक्ति सौन्दर्य से युक्त नहीं है। वे तो पूर्ण वीतरागी हैं। अत: भक्त न उनसे कुछ अभीष्ट की कामना कर सकता है और न उसकी आकाँक्षा पूर्ण ही हो सकती है। इसके लिए तो उसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का परिपालन करना होगा। अतः यहाँ अभिव्यक्त भक्ति निष्काम व अहेतुक-भक्ति है। भावावेश में कुछ कवियों ने अवश्य उनका पतित-पावन रूप और उलाहना आदि से सम्बद्ध पद लिखे हैं। 862 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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