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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 2. आचार, तीनों का समन्वय है । अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंचपरमेष्ठियों की भक्ति में साधक कवि सम्यक् साधना पथ पर चलता है और साध्य की प्राप्ति कर लेता है। इस सम्यक् साधन और साध्य की अनुभूति कवियों के निम्नांकित साहित्य में विविध प्रकार से हुई है I 1. जैन कवियों ने जैन - सिद्धान्तों का विवेचन कहीं-कहीं गद्य में न कर पद्य में किया है । वहाँ प्रायः काव्य गौण हो गया है और तत्त्व - विवेचन मुख्य । उदाहरणतः भ. रत्नकीर्ति के शिष्य सकलकीर्ति का आराधना प्रतिबोधसार, यशोधर का तत्त्वसारदूहा, वीरचन्द की सम्बोधसत्ताणु भावना आदि को हम आध्यात्मिक काव्य कह सकते हैं। स्तवन जैन कवियों का प्रिय विषय रहा है। भक्ति के क्षेत्र में वे किसी से कम नहीं रहे। इन कवियों और साधकों की आराध्य के प्रति व्यक्त निष्काम भक्ति है। उन्होंने पंचपरमेष्ठियों की भक्ति में स्तोत्र, स्तुति, विनती, धूल आदि अनेक प्रकार की रचनाएँ लिखी हैं। पंचकल्याणक स्तोत्र, पंचस्तोत्र आदि रचनाएँ विशेष प्रसिद्ध हैं । इन रचनाओं में मात्र स्तुति ही नहीं, प्रत्युत वहाँ जैन सिद्धान्तों का मार्मिक विवेचन भी निबद्ध है। 3. चौपाई, जयमाल, पूजा आदि जैसी रचनाओं में भी भक्ति के तत्त्व निहित हैं । दोहा और चौपाई अपभ्रंश साहित्य की देन है। ज्ञानपंचमी चौपाई, सिद्धान्त चौपाई, ढोला मारु चौपाई, कुमति विध्वंस चौपाई जैसी - चौपाईयाँ जैन साहित्य में प्रसिद्ध हैं। एक ओर जहाँ सिद्धान्त की प्रस्तुति होती है, दूसरी ओर ऐतिहासिक तथ्यों का उद्घाटन भी । मूलदेव चौपाई इसका उदाहरण है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4. पूजा साहित्य जैन कवियों का अधिक है। पंचपरमेष्ठियों की पूजा, पंचम दशलक्षण, सोलहकारण, निर्दोषसप्तमीव्रत आदि व्रत-सम्बन्धी - पूजा, देवगुरुशास्त्रपूजा, जयमाल आदि अनेक प्रकार की भक्तिपरक रचनाएँ मिलती हैं। द्यानतराय का पूजा - साहित्य विशेष लोकप्रिय हुआ है । 5. चांचर, होली, फागु, यद्यपि लोकोत्सवपरक काव्य रूप है, पर उसमें जैन कवियों ने बड़े ही सरस ढंग से आध्यात्मिक विवेचन किया है। चांचर या चर्चरी में स्त्री-पुरुष हाथों में छोटे-छोटे डंडे लेकर टोली - नृत्य करते हैं । रास में भी लगभग यही होता है। हिंडोलना होली और फागु में तो कवियों ने आध्यात्मिकता का सुन्दर पुट दिया है। कहीं-कहीं सुन्दर रूपक तत्त्व भी मिलता है। 6. वेलिकाव्य राजस्थान की परम्परा से गुँथा हुआ है । वहाँ चारण कवियों ने इसका उपयोग किया है । बाद में वेलि - काव्य का सम्बन्ध भक्ति काव्य हिन्दी जैन साहित्य :: 855 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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