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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्यायशास्त्रीय संस्कृत-जैनग्रन्थ तत्त्वमीमांसा व ज्ञानमीमांसा से सम्बन्धित प्रमुख जैन सिद्धान्त व दार्शनिक मान्यताओं पर समकालीन प्रचलित न्यायशास्त्रीय व तार्किक शैली में अनेक संस्कृत प्रौढ़ ग्रन्थों की रचना हुई, जिनका संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है। - हम देखते हैं कि जैन परम्परा में शास्त्रीय न्याय-चर्चा का क्रमिक विकास हुआ है। मूलतः जिनवाणी या आगम स्वतःप्रमाण है और उसे तर्क का विषय बनाया नहीं जा सकता, यह जैन मान्यता प्रारम्भ से रही है। परवर्ती आचार्यों ने उक्त चिन्तन को नया आयाम देते हुए कहा- आगमगम्य-तत्त्व सूक्ष्म व स्थूल दोनों प्रकार के हैं। सूक्ष्म तत्त्व भले ही तर्क की सीमा से परे हैं, किन्तु स्थूल तत्त्वों की हम दृष्टान्त, तर्क व युक्ति के आधार पर परीक्षा कर सकते हैं और ऐसे तत्त्व हेतुवादगम्य हैं। इस प्रकार 'तर्क' पद्धति को आंशिक रूप से स्वीकृत किया गया। यह युग आगम व हेतु के समन्वय की भावना का था। कालान्तर में आगमिक मान्यता व अनेकान्तवाद-जैसे मौलिक सिद्धान्त के पोषण की दृष्टि से युक्तिप्रधान शास्त्रों की रचना प्रारम्भ हुई। उपर्युक्त पृष्ठभूमि में क्रमिक विकसित जैन न्यायशास्त्रीय परम्परा के अन्तर्गत जैन आचार्यों द्वारा रचित न्यायशास्त्रीय संस्कृत ग्रन्थों की सुदीर्घ परम्परा रही है, जिसका संक्षिप्त विवेचन करना ही यहाँ सम्भव होगा। जैन परम्परा में संस्कृत भाषा के माध्यम से न्यायशास्त्रीय चर्चा का सूत्रपात करने का श्रेय दिगम्बर आचार्य समन्तभद्र (ई. 2-3री शती)और श्वेताम्बर आचार्य सिद्धसेन (ई. 4-5वीं शती) को है। [कुछ विद्वान् आचार्य समन्तभद्र को ई. 5-6ठी शती का मानकर उन्हें सिद्धसेन से परवर्ती मानते हैं।] आचार्य समन्तभद्र ने 'आप्तमीमांसा' (देवागमस्तोत्र), 'बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र' व 'युक्त्यनुशासन' की रचना की और उनमें स्तुति के माध्यम से न्यायशास्त्रीय विषयों की भी चर्चा की। ___114 संस्कृत पद्यों वाली कृति 'आप्तमीमांसा' में यह स्पष्ट विचार किया गया है कि वक्ता यदि आप्त (सर्वज्ञ, वीतराग) न हो, तो तत्त्व की सिद्धि हेतु (तर्क) के आधार पर की जाती है। इस ग्रन्थ में सर्वज्ञ की सिद्धि हेतुवाद से की गयी है, साथ ही अनेकान्तवाद एवं सप्तभंगीवाद की स्थापना करते हए उसके व्यावहारिक उपयोग की पद्धति भी प्रस्तुत की गयी है। इसी पृष्ठभूमि में भावैकान्त, अभावैकान्त आदि एकान्तवादों का निराकरण भी किया है। उन्होंने यह भी घोषित किया कि 'स्यात्' शब्द का प्रयोग जैन न्याय में ही समुचित रूप से हुआ है, एकान्तवादियों के न्याय में नहीं। आप्तमीमांसा में ग्रन्थकार ने नित्यानित्य, सामान्य-विशेष, भेदाभेद, भावाभावइन विरोधी वादों के मध्य अनेकान्तवाद के आधार सप्तभंगी की योजना करते हुए संस्कृत साहित्य-परम्परा :: 793 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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