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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृत में 'योगबिन्दु', 'योगदृष्टिसमुच्चय' तथा ' षोडशक', - ये तीन ग्रन्थ उनके यहाँ उल्लेखनीय हैं, जिनमें आचार्य का विशेष चिन्तन तो झलकता ही है, साथ ही वैदिक व बौद्ध परम्परा की योग-साधना के विचारों को आत्मसात् कर जैन साधना को कुछ नये रूप में प्रस्तुत करने का उनका सफल प्रयास भी दिखाई देता है। उन्होंने सामयिक परिस्थिति के अनुरूप, जैन आगम - परम्परा में बिखरे हुए योग-साधना के सूत्रों को एकत्रित कर, लोक - रुचि का ध्यान रखते हुए विशिष्ट वर्णन शैली के माध्यम से योगसाधना का एक सहज बोधगम्य स्वरूप उपस्थापित किया और अपने व्यापक, उदार व समन्वयात्मक दृष्टिकोण के साथ योग-साधना से सम्बन्धित विविध पक्षों पर प्रकाश डालने का सफल प्रयास किया है। योग-सम्बन्धी निरूपण में उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा, शास्त्रान्तरविज्ञता तथा समन्वयात्मक, तुलनात्मक व मनोवैज्ञानिक दृष्टियों का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है। जैन परम्परा में स्वीकृत गुणस्थानों व योगदर्शन- सम्मत योगाङ्गों आदि का समन्वयात्मक रूप आठ योग- दृष्टियों के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें बौद्ध परम्परा के 'अभिधर्मकोश' ग्रन्थ में वर्णित आठ दृष्टियों के चिन्तन को भी ध्यान में रखा गया प्रतीत होता है। इस तरह उनकी अभिनव मौलिक दृष्टि, लोकोत्तर प्रतिभापूर्ण वैदुष्य व उदार दृष्टिकोण की छाप सर्वत्र प्रतिबिम्बित होती है । 'योगदृष्टिसमुच्चय' पर स्वयं आचार्य हरिभद्रकृत तथा उपाध्याय यशोविजयगणी ( 18वीं शती) कृत टीका भी उपलब्ध है । आचार्य गुणभद्र (9वीं शती) कृत आत्मानुशासन तथा आचार्य अमितगति (1011वीं शती) कृत 'सुभाषितरत्नसन्दोह' भी ध्यान-साधना की पूर्वपीठिका प्रस्तुत करते हैं। आचार्य शुभचन्द्र (ई. 11वीं शती) का 'ज्ञानार्णव' नामक ग्रन्थ जैन योग परम्परा के विविध पक्षों का निरूपण करने वाली एक प्रमुख व उल्लेखनीय रचना है। करीब दो हजार से अधिक संस्कृत श्लोकों तथा 39 या 42 प्रकरणों वाला यह ग्रन्थ जैनयोग के अध्येताओं के लिए अत्यन्त उपादेय है । पूर्ववर्ती योगविषयक ग्रन्थों का प्रभाव भी इस पर स्पष्ट झलकता है। इस ग्रन्थ पर पं. नयविलास (विक्रम 17वीं शती) द्वारा रचित एक संस्कृत - टीका भी उपलब्ध है । श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र (ई. 12वीं शती) द्वारा विरचित योगशास्त्र भी एक सर्वोपयोगी ग्रन्थ है, जिसमें हजार संस्कृत श्लोकों में मुनि व श्रावक के धर्मों एवं साधना के विविध पक्षों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ का प्रभाव इस ग्रन्थ में कुछ स्थलों पर दिखाई देता है। इसमें प्राणायाम को मोक्षप्राप्ति में बाधक बताया गया है, जो ग्रन्थकार के मौलिक चिन्तन को अभिव्यक्त करता है। अध्यात्मयोग का पं. आशाधर रचित अध्यात्मरहस्य या योगोद्दीपन (ई. 13वीं शती) लघु ग्रन्थ भी उपलब्ध हुआ है। 792 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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