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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमण जैन संस्कृति और पुरातत्त्व प्रो. भागचन्द जैन 'भास्कर' जैन संस्कृति का स्वतन्त्र स्वरूप __ श्रमण जैन संस्कृति विशद्ध मानववाद पर टिकी भारतीय संस्कृति का कदाचित प्राचीनतम स्वतन्त्र धर्म की बाहिका है, जिसने अहिंसा और अपरिग्रह का अनुपम सन्देश देकर समस्त प्राणि जगत को राहत की साँस दी है। समानता, आत्मपुरुषार्थ, सर्वोदय, कर्मवाद, आत्म-स्वातन्त्र्य आदि जैसे मानवीय सिद्धान्तों की प्रस्थापना कर उसने जातिवाद और वर्गभेद की अभेद्य दीवारों को ध्वस्त कर समाज में एक अभूतपूर्व चेतना दी है। साध्य-साधन की पवित्रता में अटूट आस्था पैदा कर उसने राष्ट्रीय एकात्मकता और अखंडता को जन्म दिया है और प्राणिमात्र की शक्ति को प्रतिष्ठित किया है। इतना ही नहीं, मानवतावादी विचारधारा को साहित्य, कला और स्थापत्य में अंकित कर उसने विश्वबन्धुत्व, सौहार्द, संयम, सद्भाव और पारस्परिक सहयोग का अगर पाठ दिया है और अहिंसक जीवन पद्धति में नये सूत्र सँजोए हैं। श्रमण जैन संस्कृति श्रम, समता, शम और स्वकीय परिश्रम का प्रतीक है। इसमें साधक फैलने या विस्तार करने/होने की आकांक्षा नहीं करता, बल्कि वह तो आत्मसाधना कर स्वयं में संकुचित होता जाता है, सिकुड़ता जाता है सांसारिकता से और स्वयं से बसे आत्मा के ही परम विशुद्ध रूप परमात्मा का ध्यान करता है। यहाँ अवतारवाद नहीं, उत्तारवाद है, परम समता, आप्तता और वीतरागता की प्रतिष्ठा है, जाति-वर्गलिंग-भेद-विहीन सामाजिकता है, संकल्प और संघर्ष है, निवृत्ति-प्रधान जीवन है, प्रार्थना नहीं, ध्यान की महत्ता है। इसीलिए इसे आर्यधर्म कहा गया है। यह श्रमण जैनधर्म और संस्कृति बिल्कुल स्वतन्त्र संस्कृति है, वैदिक या बौद्ध संस्कृति का अंग नहीं है। अतः सर्वप्रथम आर्य-समस्या पर विचार कर लेना अत्यावश्यक लगता है। आर्य समस्या और जैन संस्कृति विदेशी विद्वानों ने इस तथ्य की सदा उपेक्षा की कि आर्य भारत से ईरान गये, श्रमण जैन संस्कृति और पुरातत्त्व :: 69 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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