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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 68 :: जैनधर्म परिचय शुद्धोपयोग में लगाने के लिए करते हैं । इस प्रकार चारों अनुयोगों की कथन पद्धति अलग-अलग है, पर सब का प्रयोजन एक मात्र वीतरागता का पोषण है । कहीं तो बहुत रागादि छुड़ाकर अल्प रागादि कराने का प्रयोजन पोषण किया है । कहीं सर्व रागादि छुड़ाने का पोषण किया है, किन्तु रागादि बढ़ाने का कहीं भी प्रयोजन नहीं हैं। इस प्रकार संक्षेप में, जिस प्रकार से रागादि मिटाने का श्रद्धान हो, वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। जिसप्रकर से रागादि मिटाने का जानना हो वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और जिस प्रकार से रागादि मिटें, वही आचरण सम्यक्चारित्र है । अतः प्रत्येक अनुयोग की पद्धति का यथार्थ ज्ञान कर जिनवाणी के रहस्य को समझने का यत्न करना चाहिए । जिनवाणी में कहीं भी परस्पर विरोधी कथन होते नहीं हैं। हमें अनुयोगों की कथन पद्धति एवं निश्चय - व्यवहार का सही ज्ञान नहीं होने से विरोध भासित होता है। यदि हमें शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति का ज्ञान हो जाए, तो विरोध प्रतीत नहीं होगा । अतः सदा आगम अभ्यास का प्रयास रखना चाहिए। मोक्षमार्ग में पहला उपाय आगमज्ञान कहा है। अत: हमें यथार्थ बुद्धि से आगम का अभ्यास करना चाहिए । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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