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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गये। लाखों को अपने देश-वतन को छोड़कर कहीं सुदूर जाकर अपने प्राण बचाने पड़े और इस प्रकार वे सारे विश्व में पलायन कर गये। जिनके ओर-छोर का कुछ पता नहीं है कि वे कब कहाँ से गये। जब वे बाहर गये तो अपने साथ अपनी संस्कृति भी ले गये, अपना धर्म भी ले गये। हाँ यह बात जरूर है कि उनमें से कितने अपनी संस्कृति को बचा सके, कितने अपने धर्म को और उनमें से बहुत ऐसे भी गये, जो जहाँ गये वे वहाँ की धर्म और संस्कृति में ऐसे विला गये कि कहीं से भी उनके मूल धर्म और संस्कृति की पहचान सम्भव नहीं है। कुछ ने अपनी मूल संस्कृति और धर्म को बचाये रखा, कुछ ने कुछ बदला और कुछ ने दूसरों पर अपने धर्म और संस्कृति के प्रभाव छोड़े और प्रभाव छोड़ते हुए दूसरों को अंगीकार कर लिया। आज इन सब सूत्रों का लेखा-जोखा हमारे पास नहीं है। इसके बाद पार्श्वनाथ, महावीर के युग में जैनधर्म का पुनरुत्थान हुआ और देश में जैन बाहुल्य 16 महाजनपद स्थापित हुए। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ वर्ल्ड रिलीजन्स के विख्यात लेखक श्री कीथ के अनुसार वेरिंग, जलडमरूमध्य से लेकर ग्रीन लैण्ड तक सारे उत्तरी ध्रुवसागर के तटवर्तीय क्षेत्रों में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ प्राचीन श्रमण संस्कृति के अवशेष न मिलते हों और ये अवशेष सोवियत यूनियन के साइवेरिया के बेरिंग जलडमरूमध्य से फिनलैण्ड, लैपलैण्ड और ग्रीनलैण्ड तक फैले हुए हैं। वे कहते हैं कि वहाँ यह संस्कृति प्राचीन काल से निरन्तर कम-अधिक रूप में विद्यमान थी, लेकिन बाद में ईसाई धर्म के प्रचारकों ने इसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया। उस धर्म के श्रमण संन्यासी या तो मारे गये या उन्होंने आत्महत्या कर ली। ऐसे भी अनेक अवशेष मिलते हैं जो यह कहते हैं कि साइबेरिया के तुर्क जातियों से चलकर यह धर्म तुर्किस्तान (टर्की) और मध्य एशिया के अन्य देशों-प्रदेशों में फैला। दूसरी ओर इस संस्कृति ने मंगोलिया, तिब्बत, चीन और जापान को प्रभावित किया। ऋषभदेव और उनकी संस्कृति परम्परा में हुए 23 अन्य तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित महान् श्रमण संस्कृति और सभ्यता का उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में प्रचार-प्रसार प्राग्वैदिक काल में ही हो गया था। सर्वप्रथम तो यह संस्कृति भारत के अधिकांश भागों में फैली और तदुपरान्त वह भारत की सीमाओं को लांघकर विश्व के अन्य देशों में प्रचलित हुई और अन्ततोगत्वा उसका विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार हुआ तथा वह संस्कृति कालान्तर में यूरोप, रूस, मध्य एशिया, लघु एशिया, मैसोपोटामिया, मिस्त्र, अमेरिका, यूनान, बैबीलोनिया, सीरिया, सुमेरिया, चीन, मंगोलिया, उत्तरी और मध्य अफ्रीका, भूमध्य सागर, रोम, ईराक, अरबिया, इथोपिया, रोमानिया, स्वीडन, फिनलैंड, थाईलैंड, जावा, सुमात्रा, श्रीलंका आदि संसार के सभी देशों में फैली तथा वह 4000 ईसा पूर्व से लेकर ईसा काल तक प्रचुरता से संसार भर में विद्यमान रही। इस श्रमण संस्कृति 738 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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