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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशों में जैनधर्म प्रो. वृषभ प्रसाद जैन जैनधर्म और उसके धार्मिक ग्रन्थों की मान्यता है कि जैनधर्म अनादिनिधन है और उसका मूल उत्स भारतवर्ष है। कुछकों की मान्यता है कि जिस प्रकार आर्यधर्म बाहर से आया, वैसे ही आर्यों के साथ जैनधर्म भी; पर इस मान्यता के पक्ष में बहुत कोई ठोस आधार नहीं है। हाँ, ऐसे प्रमाण जरूर मिलते है कि जैनधर्म भारतवर्ष तक ही सीमित नहीं रहा, वह विदेशों में भी गया। अब सवाल यह है कि जैनधर्म के सूत्र जो विदेशों में गये वे किस-किस रूप में गये। आज से लगभग छ: हजार वर्ष पहले उत्तर भारत का महानगर काली बंगा, सरस्वती महानगर के तट पर बसा हुआ था और वह आत्ममार्गी अनु-जनपद की राजधानी था। यहाँ जैनधर्म की बहुत प्रभावना थी। इसके अन्तर्गत राजस्थान का गंगानगर जिला और उसके आस-पास का क्षेत्र आता था। मिस्र, सुमेर और अन्य देशों के जहाज तटीय परिवहन मार्ग से भारत आते थे। वे चन्हुदड़ो, मोहनजोदड़ो और कालीबंगा से व्यापार सामग्री और यात्रियों को लाते-ले जाते थे। भारत के इन देशों के साथ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक रिश्ते थे। श्री गोकुल प्रसाद जी उल्लेख करते हैं कि अन्य जनपद के जैनाचार्य ओनसी थे, वे दर्शन, जैन तत्त्वार्थ ज्ञान, अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था आदि में पारंगत थे। ___ लगभग 4700 वर्ष पूर्व सुमेर क्षेत्र (सुमेरिया) आत्ममार्ग का अनुयायी था वहाँ भी जैनधर्म की बहुत प्रभावना थी। जनपद पद्धति (प्रजातान्त्रिक चुनाव पद्धति) पर आधारित सुमेरिया का अति प्रसिद्ध संन्यासी जन-राजन गिलगमेश था। वह लगभग 4700 वर्ष पहले सुमेर क्षेत्र से भारत आया था और भारत के सबसे बड़े जीवन मुक्त संन्यासी जैन आचार्य उत्तम पीठ से आत्म मार्ग और आत्म सिद्धि का ज्ञान और आचार सीख कर गया था। सुमेर क्षेत्र के लोग तत्कालीन जैनाचार्य उत्तम पीठ को उतना पीस्टन के नाम से आज तक याद करते हैं। __ इतिहास में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि जब-जब संग्राम हुए या धर्मयुद्ध हुए तो कभी आर्यों ने जैनों पर आक्रमण किया तो कभी आर्यों ने बौद्धों, पर तो कभी बौद्धों ने जैनों पर, तो कभी बौद्धों ने आर्यों पर और जब-जब इस प्रकार के धर्मयुद्ध हुए तो लाखों धर्मी मारे विदेशों में जैनधर्म :: 737 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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