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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एवं ईशान में देवगृह बनाना चाहिए। ___ शुभ गृह-जिस गृह में वेध आदि दोष नहीं हैं, बहुत द्वार नहीं हैं, देवता की पूजा होती है, अतिथि का आदर होता है। लाल रंग का परदा लगा हो, अच्छी तरह साफ-सफाई होती हो, जहाँ छोटे-बड़े भाई आदि की अच्छी तरह व्यवस्था/प्रतिष्ठा हो,जहाँ सूर्य की किरणें प्रवेश नहीं करती हों, दीपक सदा जलता रहता हो, रोगी पुरुषों का पोषण होता है, थके हुए मनुष्यों की वैयावृत्ति होती हो, उस घर में लक्ष्मी निवास करती है। ऐसा घर शुभ होता है। ___अशुभ गृह-देवकुल के समीप घर होने से दुःख होते हैं। चौराहे पर होने से अर्थ-हानि, धूर्त, मदिरा पान करने वालों के घर के समीप घर होने से पुत्र और धनक्षय, जिस घर में अनार, केला, बेरी और बिजौरा होते हैं, वे वृक्ष घर का मूल से विनाश कर देते हैं। पीपल के वृक्ष से सदा भय रहता है। वट वृक्ष से राजजनित पीड़ा होती है। ऊमर वृक्ष से नेत्रपीड़ा, दूध वाले वृक्ष से धननाश, कांटे वाले वृक्ष से शत्रु भय रहता है। इन वृक्षों की लकड़ी का भी त्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार के गृह अशुभ होते हैं। ये सदा दुःख के कारण होते हैं। ऐसे गृहों में निवास करनेवाले सदा दुःखी रहते हैं। अतः वास्तु शास्त्र के आधार से दोषों का निराकरण करना चाहिए। वास्तु की वैज्ञानिकता वास्तु प्रकृति के अनुकूल निर्माण का विज्ञान है, जिससे प्रकृति की पोषणकारी शक्ति प्राप्त कर मानव उत्तरोत्तर विकास करता है। वास्तु में व्यक्ति की प्रकृति (नैसर्गिक स्वभाव) के अनुरूप किस प्रकार, किस अनुपात में, किस दिशा में, कैसा निर्माण किया जाए, जो उसके विकास में सहायक हो, इसका वर्णन है। वास्तु विज्ञान मनुष्य व उसके चारों ओर व्याप्त वातावरण का अध्ययन करता है, और उसे मनुष्य की शक्ति एवं मानसिक स्थिति के अनुसार बनाने में सहायता करता है। वास्तु यानि भूमि-भवन से जुड़ा एक ऐसा विज्ञान, जिसमें पर्यावरण में व्याप्त ऊर्जाओं के समुचित उपयोग द्वारा सुखद व स्वस्थ जीवन के लिए विस्तृत व्याख्या मिलती है। वास्तुशास्त्र प्राकृतिक नियमों पर आधारित है, प्राकृतिक शक्तियों का सन्तुलन इसका आधार है। मन्दिरों के निर्माण में वास्तु शिल्पकारों ने अपनी बुद्धिमत्ता का भरपूर उपयोग किया। प्राचीन परम्पराओं एवं शास्त्रों के आधार पर निर्मित मन्दिरों ने भारत के सांस्कृतिक गौरव को स्थापित किया। मन्दिर का महत्त्वपूर्ण पहलू उसका ऊर्जामय वातावरण है। मन्दिर की आकृति एवं वहाँ निरन्तर मन्त्रों के पाठ की ध्वनि का परार्वतन आराधक को ऊर्जा प्रदान करता है। जब हम पापमय स्थानों में जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से हमारे मन में पाप करने के कु-विचार आते हैं। मन्दिर में इसके विपरीत आराध्य प्रभु के प्रति विनय, श्रद्धा 720 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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