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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. शिला संस्तर 3. फलक संस्तर 4. तृण संस्तर। 1. भूमि-संस्तर कठोर हो, ऊँची-नीची न हो, सम हो, छिद्र-रहित हो, चींटी आदि से रहित हो, क्षपक के शरीर के बराबर हो, गीली न हो, मजबूत हो, गुप्त हो, प्रकाश-सहित हो, वही भूमि प्रशस्त-संस्तर-रूप होती है। ___2. शिला-संस्तर आग से, कूटने से, घिसने से, प्रासुक हो, टूटा-फूटा न हो, निश्चल हो, सब ओर से जीव-रहित्त, समतल एवं प्रकाश-युक्त होना चाहिए। ____ 3. फलक-संस्तर सब ओर से भूमि से लगा हो, विस्तीर्ण हो, हल्का हो, उठाने लाने, ले जाने में सुविधा हो। अचल हो, शब्द न करता हो, जन्तु रहित, छिद्र- रहित हो, टूटा-फूटा न हो, चिकना हो,-ऐसा संस्तर श्रेष्ठ होता है।स 4. तृण संस्तर गाँठ-रहित तृणों से बना हो, तृणों के मध्य में छिद्र न हो, टे तृण न लगे हों, मृदु स्पर्श वाला हो, जन्तु रहित हो, सुख पूर्वक शुद्धि करने योग्य हो और कोमल हो, ऐसा तृण-संस्तर होना चाहिए। निषीधिका जहाँ क्षपक के शरीर को स्थापित किया जाता है, उस स्थान को निषीधिका कहते हैं। निषीधिका एकान्त स्थान में हो, जहाँ दूसरे लोग उसे न देख सकें, नगर आदि से न अति-दूर और न अति-निकट होना चाहिए। विस्तीर्ण हो, प्रासुक हो तथा अतिदृढ़ हो, चीटियों, छिद्रों से रहित, प्रकाश वाली, समभूमि हो, गीली एवं जन्तु-रहित होना चाहिए। निषीधिका क्षपक के स्थान से नैऋत्य, दक्षिण या पश्चिम दिशा में होना चाहिए। गृह-वास्तु गृह और मन्दिर का अविनाभावी सम्बन्ध है। जिसकी भीत लकड़ियों से, छप्पर बाँस और तृण से बनता है, वह गृह है। इसे वास्तु कहते हैं। पं. आशाधर जी ने दीवारों और बाँस के छप्पर को गृह नहीं, अपितु स्त्री अर्थात् कुलपत्नी को गृह कहा है। इससे ही श्रावक और श्रमण-धर्म की परम्परा चलती है। सुख-समृद्धि के लिए श्रावक को अपना घर वास्तुशास्त्रानुसार बनाना चाहिए, क्योंकि प्रकृति से सामंजस्य बनाकर रखना स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए आवश्यक है। वास्तुशास्त्र इसी सामंजस्य को बनाने एवं बनाये रखने के बारे में दिशा-निर्देश करता है। श्रावक को अपने घर की पूर्व दिशा में श्री-गृह, आग्नेय में रसोई, दक्षिण में शयन, नैऋत्य में आयुध, पश्चिम में भोजन-क्रिया, वायव्य में धन-संग्रह, उत्तर में जल स्थान जिनमन्दिर एवं गृह-वास्तु :: 719 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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