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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 57. वेडु अथवा वेणु, 58. वाली, 59. परिल्ली अथवा परिली, 60. वढ्ढगा अथवा बद्धका । वृहत्कल्प की भाष्यपीठिका में निम्न बारह वाद्यों के नाम आए हैं- 1. भम्मा, 2. मुकुन्द, 3. मद्दल, 4. बड़म्बन अथवा कड़व, 5. सल्लरी 6. हुडुक, 7. कंसाल, 8. काहल, 9. तलिमा, 10. वंस, 11. पणव, 12. संख । हरिभद्र की ई. 11 की आवश्यक वृत्ति में निम्न चर्मवाद्यों का उल्लेख है- भम्मा, मुकुन्द, करटिका, तलिमा इत्यादि । सूयगडंग में निम्न दो वाद्यों का उल्लेख है - 1. कुक्कय वीणा 2. वणुपलासीय वाद्य । इनमें से दूसरा वाद्य वंश के काष्ठ से निर्मित किया जाता था और वाम हस्त में पकड़कर फूत्कार के सहारे दक्षिण हाथ की अंगुलियों से बजाया जाता था । वृहत्कल्प भाष्य में कान्ह वासुदेव की चतुर्विध भेरी का उल्लेख है - 1. कोमुदिका, 2. संगामिया, 3. दुम्भुइया, 4. असिवोपसमिनी । इन भेरियों को अलौकिक गुणों से युक्त माना जाता था । असिवोपसिमिनी के बजाए जाने पर रोग निवारण होता है, ऐसी लौकिक मान्यता थी । इन भेरियों का निर्माण प्रायः चन्दन के काष्ठ से किया जाता था, शंख का उपयोग पर्यटक साधु महात्माओं के द्वारा किया जाता था। गंगातीर निवास करने वाले वानप्रस्थ तावस अर्थात् तापस शंखधमग तथा कूलधमग कहलाते थे। लौकिक मान्यता में शंख, भेरी तथा नन्दीतूर का वादन शुभाशंसक माना जाता था । भेरी वाद्य का उपयोग जनता को किसी घटना की सूचना देने के लिए लोकोत्सवों पर तथा युद्ध के अवसर पर किया जाता था । जैन काल में ब्राह्मणों के महत्त्व को कम करने तथा वर्णाश्रमों के बन्धनों को तोड़ने का प्रयत्न किया जाने लगा । फलस्वरूप संगीत पर ब्राह्मणों का जो एक मात्र अधिकार था, वह अब सर्व-साधारण के हाथों में पहुँच गया । शूद्र एवं अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों में भी कलात्मक चेतना का आविर्भाव होने लगा। संगीत की नींव महावीर स्वामी के सिद्धान्तों लगभग 600 वर्ष ई.पू. के सिद्धान्तों यथा - सत्यता, पावनता, सुन्दरता, अहिंसा और अस्तेय पर रखी गई। इसप्रकार संगीत के धरातल को पुनः ऊँचा बनाया गया। इस युग में वीणा का प्रचार प्रगतिपूर्ण था । वीणा के द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों का प्रचार किया गया। परिवादिनी, विपंची, वल्लकी, नकुली, कच्छपि इत्यादि प्राचीन वीणाएँ प्रचार में थीं। इस काल में राज्य की ओर से संगीत की प्रतियोगिताएँ भी प्रारंभ की गई थीं, जिनमें भाग लेने के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं था। विजेताओं को पुरस्कृत भी किया जाता था। ऐसा भी उल्लेख है कि जैन युग में संगीत ने अपने पुराने जातीय बन्धन को तोड़ दिया था। वह सब के लिए साधना का मुख्य विषय बन गया था । उन पिछड़े समझे जाने वाले वर्ग के लोगों ने जो अब तक संगीत के ज्ञान से वंचित रखे जाते थे, पूरा लाभ उठाना प्रारम्भ कर दिया था । पशु की तृप्ति जैसे आहार लेने और पानी पीने मात्र से हो जाती है, मनुश्य की तृप्ति उतने से नहीं होती है और यदि उतने से होती होती, तो मनुष्य भी पशु से ऊपर न उठा 706 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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