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नहीं, शान्ति की स्थापना के लिए है। शास्त्र एवं प्रयोग दोनों दृष्टियों से जैन संगीत की भारतीय साहित्य और कला जगत् को महत्त्वपूर्ण देन है। शास्त्र की दृष्टि से तीन रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं- 1. आचार्य पार्श्वदेव का 'संगीत-समयसार', 2. आचार्य सुधाकलश का 'संगीत-सारोपनिषद्-सार', तथा 3. मंडन का 'संगीत-मंडन'। संगीत के उपर्युक्त तीनों शास्त्रीय-सन्दर्भो के अतिरिक्त आगम, दर्शन एवं साहित्य आदि के जैन ग्रन्थों में भी संगीत के महत्त्वपूर्ण उद्धरण व उल्लेख मिलते हैं। रायपसेणीय सुत्त में भगवान महावीर स्वामी की वन्दना करते हुए आचार्य सूर्याभदेव ने बत्तीस प्रकार के अभिनयात्मक नाटकों का उल्लेख किया है। कल्पसूत्र टीका व कलिका पुराण में चौसठ कलाओं का वर्णन है तथा इन्हें महिला गुण कहा गया है। उबवाइस सूत्र में चम्पा नगरी का वर्णन करते हुए लिखा है कि वहाँ नटों, नर्तकों, संगीतज्ञों तथा लास्य नृत्य करने वाली नर्तकियों का आवागमन होता रहता था। ऐसा ही उल्लेख औपपत्तिक सूत्र में भी है। राजप्रश्नीय आगम में महावीर स्वामी के जीवन-चरित को नृत्य-प्रधान नाट्य के रूप में अभिनीत किये जाने का उल्लेख है।
जैन आगमों में चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, कौशाम्बी और मिथिला आदि भारत के प्राचीन नगरों तथा वहाँ के नागरीय जीवन का विस्तार से वर्णन है। इन वर्णनों में अनेक प्रकार की कलाओं, विद्याओं और मनोरंजनों का भी उल्लेख है। उबवाइस सूत्र में लिखा है कि चम्पानगरी में नटों, नर्तकों, लास्य नृत्य करने वाली नर्तकियों और तानपुरा वीणा
आदि वाद्यों के बजाने वाले कलाकारों का आना-जाना लगा रहता था। ___ठाणांग सुत्त, रायपसेणीय तथा कल्पसूत्र में, अनुयोगद्वार-सूत्र में संगीत-संबन्धी सामग्री काफी मात्रा में उल्लिखित है। स्वर, गीत, मूर्च्छना आदि गन्र्धव के विषयों का सूत्र-बद्ध विवरण वहाँ है। यह भी उल्लेख है कि संगीत अथवा गन्धर्व-शास्त्र उन विषयों में से है, जिनका परिवर्तन भगवान महावीर के द्वारा हुआ। इन विषयों का सैद्धान्तिक विवेचन प्राचीन ग्रन्थों में है। जैन परम्परा के अनुसार पूर्व ग्रन्थ जैनों की प्राचीनतम परम्परा के वाहक हैं तथा यह परम्परा भगवान महावीर तक पहुँचती है। जैन सिद्धान्त ग्रन्थों में प्राचीन ललित कलाओं के अन्तर्गत जिन 72 अथवा 64 कलाओं की गणना पाई जाती है, इनका अध्ययन क्षत्रियों तथा महिलाओं के द्वारा किया जाता था। लौकिक विधाओं तथा कलाओं के अन्तर्गत गाथा, आख्यान तथा कथाओं की शिक्षा इस युग में पारम्परिक रूप से प्रदान की जाती रही है। रायपसेणीय के अनुसार आचार्यों के तीन वर्ग थे- 1. कलायरिय अर्थात् कलाचार्य, 2. सिप्पायरिय अर्थात् शिल्पाचार्य, तथा 3. धम्मायरिय अर्थात् धर्माचार्य। आचार्यों को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। संगीतकुशल गणिकाओं का राजसभा में सम्मान किया जाता था। चम्पा नगरी की गणिकाएँ संगीत तथा वैषिकी कलाओं में पारंगत बतायी गयी हैं, और इन्हें राजकोष से पर्याप्त वेतन प्रदान किया जाता था। गणिकाओं के अतिरिक्त नृत्य का व्यवसाय करने वाला निट्टयाव
704 :: जैनधर्म परिचय
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