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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिक सटीक अंकन और क्या हो सकता है, इस प्रकार जैन कला में बाहुबली एवं भरतमुनि की मूर्तियाँ भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों की जीवन्त अभिव्यक्ति हैं। जैनकला में स्थापत्य एवं मूर्ति दोनों ही विधाओं में कलात्मक सौन्दर्य के साथ ही अर्थपूर्ण दार्शनिक चिन्तन का भाव भी सर्वत्र प्रत्यक्ष हुआ है। भारतीय स्थापत्य की परम्परा में जैन मन्दिर भी प्रतीकात्मक रूप से सूक्ष्म-जगत् की अभिव्यक्ति का माध्यम रहे हैं, जिन पर चराचर जगत् की समवेत उपस्थिति भारतीय चिन्तन के समष्टि भाव को उजागर करती हैं। जैन मन्दिरों पर एक ओर वीतरागी तीर्थंकरों और त्याग एवं साधना के प्रतीक बाहुबली की मूर्तियाँ उकेरी गयीं, तो दूसरी ओर वैदिक-पौराणिक परम्परा के राम, वासुदेव-कृष्ण, बलराम, शिव, विष्णु, ब्रह्मा और कामदेव का शिल्पांकन हुआ, जो जैनचिन्तन के समन्वय-भाव को मूर्तमान करते हैं। तीर्थंकर की मूर्तियों में लांछन के रूप में पशु-पक्षी जगत और शीर्ष भाग में सांकेतिक रूप से अशोक-वृक्ष की उपस्थिति तथा कायोत्सर्ग में साधनारत बाहुबली के साथ शरीर पर लता-वल्लरियों एवं सर्प तथा वृश्चिक आदि का अंकन जैनकला में वनस्पति और पशु जगत् यानी पर्यावरण के महत्त्व के प्रति समझ और सरोकार को उजागर करता है। तीर्थंकरों एवं बाहुबली की मूर्तियों में अलौकिक एवं आध्यात्मिक सौन्दर्य के दर्शन होते हैं, जो उपासकों को शान्ति की प्रेरणा देते हैं। बृहत्संहिता, मानसार एवं अन्य ग्रन्थों में तीर्थंकर मूर्तियों के 'रूपवान, मनोहर एवं सुरूप' होने का भी उल्लेख हुआ है। ऐसा भी नहीं था कि जैनकला में शृंगार या भौतिक जगत् के सौन्दर्य को महत्त्व ही नहीं दिया गया। जैनकला में यक्ष-यक्षी, विद्यादेवियों और अप्सराओं, नृत्यांगनाओं तथा श्रृंगार एवं प्रसाधिकाओं और काम-शिल्प के उकेरन में लौकिक सौन्दर्य को अनुभूति के यथार्थ धरातल पर व्यक्त किया गया है, जिसमें किसी का भी मन मोह लेने की शक्ति है और जो श्रावकश्राविका या गृहस्थ जीवन के भौतिक अनुराग की व्यावहारिक अनिवार्यता को रेखांकित करते हैं । वस्तुतः जैनकला में आध्यात्मिक और लौकिक सौन्दर्य का अद्भुत समन्वय व्यक्त हुआ है, जो जैनकला का वैशिष्ट्य होने के साथ ही भारतीय कला की मूलधारा की भी अभिव्यक्ति है। यही विशेषता जैनकला की लोक-व्याप्ति का आधार भी रही सन्दर्भ 1. एपिग्राफिया इण्डिका, खण्ड 1, कोलकाता, 1892, लेख सं. 1, 2, 7, 21, 29; खण्ड 2, कोलकाता, 1894, लेख सं. 5, 16, 18, 39. 2. डी.आर. भण्डारकर, आर्किअलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, ऐनुअल रिपोर्ट, 1908-09; कोलकाता, 1912, पृ. 108; पी.सी. नाहर, जैन इन्स्क्रीप्शन्स, भाग-1, कोलकाता, 1918 पृ. 192-94; एपिग्राफिया इंडिका, खण्ड-11, पृ. 52-54; विजयमूर्ति (सं.), जैन शिलालेख 700 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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