SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 690
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14. ऊँट पर चढ़े हुए राजपुत्र के देखने से ज्ञात होता है कि- राजा लोग निर्मल धर्म को छोड़कर हिंसा मार्ग स्वीकार करेंगे। ___15. धूलि से आच्छादित रत्नराशि के देखने से निर्ग्रन्थ मुनि भी परस्पर में निन्दा करने लगेंगे। 16. तथा काले हाथियों का युद्ध देखने से मेघ मनोभिलषित नहीं बरसेंगे। राजन! इस प्रकार स्वप्नों का जैसा फल है, मैंने तुमसे कहा। राजा भी स्वप्नों का फल सुनकर संसार से भयभीत होकर विरक्त-चित्त हुआ। पंचवर्ण वर्णस्वरूप- पाँच वर्णो (रंग) का शास्त्रों में अनेक स्थानों में वर्णन मिलता है। वर्ण शब्द का अनेकों अर्थों में प्रयोग किया जाता है। यथा 'वर्णशब्दः क्वचिद्रूपवाची शुक्लवर्णमानय शुक्लरूपमिति। अक्षरवाची क्वचिद्यथा सिद्धो वर्णसमाम्नायः इति। क्वचित् ब्राह्मणादौ यथात्रेव वर्णानामधिकार इति।' आचार्य शिवकोटि, भगवती आराधना, 47/160/1 -वर्ण शब्द के अनेक अर्थ हैं। वर्ण-शुक्लादिक वर्ण जैसे सफेद रंग को लाओ। वर्ण शब्द का अर्थ अक्षर ऐसा भी होता है, जैसे वर्णों का समुदाय अनादिकाल से है। वर्ण शब्द का अर्थ ब्राह्मण आदिक ऐसा भी है। जैनाचार्यों ने 'वर्ण' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की है'वर्ण्यत इति वर्णः' आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, 2/20/178/1 --जो देखा जाता है, वह वर्ण है। वर्ण भेद __स पंचविधः कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात्' आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, 5/23/294/2 काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद से वर्ण पाँच प्रकार का है। और भी'श्वेतपीतनीलारुणकृष्णसंज्ञाः पंचवर्णाः' आचार्य ब्रह्मदेव सूरि, बृहद् द्रव्यसंग्रह, 7, पृष्ठ 19 पंचवर्ण का महत्त्व जैनधर्म में पाँच वर्षों का अत्यधिक महत्त्व है। प्रत्येक मांगलिक व धार्मिक कार्यों में पाँच वर्षों से निर्मित वस्तु का प्रयोग किया जाता है। संक्षेप रूप से हम पंचवर्ण का महत्त्व इसप्रकार समझ सकते हैं जैन परम्परा में पंचवर्णात्मक प्रतीक का प्रयोग पंचपरमेष्ठी, समवसरण, ध्वज, मयूरपिच्छी, स्याद्वाद, स्वर्गों के प्रासाद आदि के अर्थ में हुआ हैअर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये पाँच परमेष्ठी होते हैं, इनका वर्ण प्रतीक दर्शन :: 681 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy