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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्यिका, श्रावक-श्राविका, देव-देवियाँ, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि सभी बैठकर परस्पर के विरुद्ध भाव से रहित होकर भगवान के दिव्य उपदेशामृत का पान कर सम्यक्त्व से जीवन सफल करते हैं। भगवान का विहार बहुत ही धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छिक दान पुण्यशालियों द्वारा दिया जाता है। भगवान के श्रीचरणों के नीचे देवलोग सहस्र दल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। भगवान इनको भी स्पर्श न करके ऊपर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। समस्त पृथ्वी ईतिभीति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओं के साथ आगे-आगे जय-जयकार करते चलते हैं। मार्ग में सुन्दरक्रीडा स्थान बनाए जाते हैं। मार्ग श्रृंगार, कलश, दर्पण, चँवर, ध्वजा, वीजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ -अष्ट मंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामण्डल, छत्र, चँवर स्वत: साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेक निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव भी परस्पर का वैर-विरोध भूल जाते हैं, अन्धे-बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाता है। समवसरण में मुख्यतः गणधर मुनिराज की उपस्थिति में भव्य जीवों के महाभाग्य से प्रभु की भव-ताप हारी ॐकारमयी दिव्य-ध्वनि सर्वांग से खिरती है, जिसमें वस्तु तत्त्व का समग्र गुण-पर्यायमयी उत्पादव्यय-ध्रौव्य युक्त परिचय कराया जाता है। 5. निर्वाणकल्याणक-देह वियोग का अन्तिम समय आने पर भगवान योग-निरोध द्वारा व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक परम शुक्ल ध्यान में निश्चलता कर शेष चार अघातिया कर्मों का भी क्षय कर देते हैं और निर्वाण धाम को प्राप्त होते हैं। देवगण निर्वाण कल्याणक की पूजा करते हैं और देह कपूर की भाँति उड़ जाता है, इन्द्र उस स्थान पर भगवान के लक्षणों से युक्त सिद्ध क्षेत्र का निर्माण करता है। प्रभु शाश्वत रूप से सिद्धधाम के वासी होकर निरन्तर अतीन्द्रिय आनन्दमय हो जाते हैं। जिनागम और अनुयोग वीतरागी सर्वज्ञता को प्राप्त जिनेन्द्र भगवान ही जिन हैं, और उन जिनेन्द्र भगवान के निर्मल ज्ञान में जैसा वस्तु का स्वरूप जानने में आया, वैसा ही उन्होंने इन्द्रों व गणधर मुनिराजों की उपस्थिति में जगत् के समक्ष दिव्यध्वनि द्वारा बताया, वही जिनवाणी है। गणधर देव ने उसे अपने महान ज्ञान से द्वादशांग जिनागम के रूप में गूंथा। अनन्तर, श्रुत केवली मुनिराजों की परम्परा के भी अभाव होने पर श्रुतज्ञान की अल्पता में द्वादशांग जिनागम को आचार्यों ने सरल-सरस पद्धति में बाँटा, जिसे अनुयोग कहा गया। उसमें कहा गया है इस भव तरु का मूल इक जानहु मिथ्याभाव। ताकौ करि निर्मूल अब करिये मोक्ष उपाव।। 62 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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