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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतृप्त नयनों से देखते हुए इन्द्र की गोद में दे देती है, जो उनका सौन्दर्य देखते हुए 1000 नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता। ऐरावत हाथी पर बालप्रभु को लेकर इन्द्र सुमेरुपर्वत की ओर चलता है। वहाँ पहुँचकर पाण्डुकशिला पर बाल-प्रभु का क्षीरसागर से देवों द्वारा लाए गये जल के 1008 कलशों द्वारा जन्माभिषेक करता है। तदनन्तर बालक को वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर नगर में देवों सहित महान उत्सव के साथ प्रवेश करता है। बालक के अंगूठे में अमृत क्षेपण करके ताण्डव नृत्य आदि अनेक मायामयी आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रकट कर अपनी भक्ति समर्पित करते हुए देवलोक को लौट जाता है। दिक्कुमारी देवियाँ भी अपने-अपने स्थान को चली जाती हैं। 3. तपकल्याणक-कुछ काल तक राज्य विभूति का भोग कर लेने के पश्चात् किसी एक दिन कोई वैराग्यजनक कारण पाकर कुमार या राजा तीर्थंकर को वैराग्य उत्पन्न होता है। उस समय ब्रह्म स्वर्ग से बाल ब्रह्मचारी एक भवावतारी लौकान्तिक देव भी आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना करते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हें वस्त्राभूषणों से अलंकृत करता है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकी में प्रभु विराजमान होते हैं। इस पालकी को पहले तो विद्याधर व भूमि-गोचरी मनुष्य कन्धों पर लेकर कुछ दूर पृथ्वी पर चलते हैं, फिर देव लोग लेकर आकाश मार्ग से वन-जंगल में पहुँचते हैं। तपोवन में पहुँचकर प्रभु समस्त वस्त्रालंकार त्यागकर राग-द्वेष से मुक्त होते हुए केशों का पंचमुष्टि से लुंचन कर देते हैं और 'नमः सिद्धेभ्यः' उच्चारण करते हुए नग्न दिगम्बर मुद्रा धारण कर स्वयं दीक्षित होते हैं, अन्य भी अनेक राजा उनके साथ स्वयं दीक्षित हो जाते हैं। इन्द्र उन लुंचित केशों को एक मणिमय पिटारे में रख कर क्षीरसागर में क्षेपण करता है। दीक्षास्थान तीर्थस्थान बन जाता है। तीर्थंकर मुनिराज बेला, तेला आदि उपवास-नियम-पूर्वक आहारचर्या के लिए नगर में जाते हैं और यथाविधि, एकबार, खड़े-खड़े, अल्पमात्रा में, प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। दातार के घर पंचाश्चर्य प्रकट होते हैं। यह तो बहिरंग सबको दिखाई देने वाला दृश्य है। वे तो स्वयं निरन्तर आत्मोन्मुखता रूप पुरुषार्थ द्वारा आत्मोत्थ, स्थायी, अतीन्द्रियसुख का रस-पान करते रहते हैं। ___4. ज्ञानकल्याणक-यथाक्रम आत्मध्यान की निरन्तरता रूप महापुरुषार्थ द्वारा मोक्ष की श्रेणियाँ चढ़ते हुए क्षपक श्रेणी आरूढ़ हो प्रचुर स्वसंवेदन के बल से मोह का नाश करते हुए चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर प्रभु केवलज्ञानी भगवान बन जाते हैं। अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप अनन्तचतुष्टय की स्वाधीन, स्थायी लक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं, तब पुष्पवृष्टि, दुन्दुभि शब्द, अशोकवृक्ष, चँवर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्णसिंहासन, और दिव्य-ध्वनि रूप आठ प्रातिहार्य सुसज्जित होते हैं। वर्तमान शरीर परिवर्तित होकर परमौदारिक हो जाता है। अब प्रभु अर्हन्त अवस्था में 46 गुणों सहित विराजते हैं। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर दिव्य समवसरण रचता है, जिसकी विचित्र रचना से जगत चकित होता है। 12 सभाओं में यथास्थान मुनिराज, तीर्थंकर परम्परा, जिनागम और अनुयोग :: 61 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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