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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हर्षकीर्तिसूरि कृत 'योग चिन्तामणि' ___ चिकित्सायोग के इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रचयिता भिषग्वर जैनाचार्य श्री हर्षकीर्तिसूरि हैं। इस ग्रन्थ का निर्माण अन्य पूर्ववर्ती वैद्यक ग्रन्थों से सार ग्रहण कर संस्कृत भाषा में किया गया है। अतः इसका अपर नाम 'वैद्यकसारसंग्रह' भी है। इस ग्रन्थ के तृतीय अध्याय के अन्त में जो पुष्पिका दी गयी है, उसमें भी इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यथा-"इति श्री भट्टारक श्री हर्षकीय॒पाध्यायसंकलिते योगचिन्तामणौ वैद्यकसारसंग्रहे गुटिकाधिकारस्तृतीयः" इस पुष्पिका से यह भी ध्वनित होता है कि इनका पूरा नाम भट्टारक श्री हर्षकीर्ति उपाध्याय था। चतुर्थ अध्याय के अन्त में उल्लिखित पुष्पिका से उनके गच्छ पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। पुष्पिका निम्न प्रकार है"श्रीमन्नागपुरीयतपागच्छीय श्री हर्षकीय॒पाध्यायसंकलिते योगचिन्तामणौ वैद्यकसारसंग्रह क्वाथाधिकारश्चतुर्थः।" इसके अनुसार ये नागपुरीय तपागच्छ से सम्बन्धित थे। आचार्य प्रियव्रत शर्मा ने इन्हें नागपुर तथा गच्छ स्थान का निवासी बतलाया है, जो ठीक नहीं है। वस्तुतः जैन साधुओं का पृथक्-पृथक् गच्छ होता है, जिससे वे सम्बन्धित रहते थे, न कि एक स्थान के निवासी थे। क्योंकि जैन साधु किसी एक स्थान पर सतत निवास नहीं करते हैं। वर्षाकाल को छोड़कर वे स्थान-स्थान विहार करते रहते हैं। अतः उन्हें किसी स्थान विशेष का निवासी नहीं कहा जा सकता। ___ ग्रन्थकर्ता ने प्रस्तुत ग्रन्थ को 'सारसंग्रह' कहते हुए इसमें सात अध्याय होने का उल्लेख किया है पाकचूर्णगुटी क्वाथघृततैलाः समिश्रकाः। अध्यायाः सप्त वक्ष्यन्ते ग्रन्थेऽस्मिन् सारसंग्रहे ।। अर्थात् प्रस्तुत 'सारसंग्रह' नामक ग्रन्थ में पाकाधिकार, चूर्णाधिकार, गुटिकाधिकार, क्वाथाधिकार, घृताधिकार, तैलाधिकार और मिश्राधिकार ये सात अध्याय कहे गये हैं। ऋद्धिसार या रामऋद्धिसार (रामलाल) 20वीं शती यह खरतरगच्छीय क्षेमकीर्ति शाखा के कुशलनिधान के शिष्य थे। ये बहुत अच्छे चिकित्सक थे। इनके द्वारा लिखे हुए कई ग्रन्थ हैं। सब ग्रन्थ उन्होंने स्वयं प्रकाशित किये थे। 'दादाजी की पूजा' (सं. 1953, बीकानेर) इनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है। यह बीकानेर के निवासी थे। इनके अधिकांश ग्रन्थ सं. 1930 से 67 के मध्य के हैं। इनका लिखा हुआ 'वैद्यदीपक' नामक वैद्यकग्रन्थ है। यह मुद्रित है। सन्तानचिन्तामणि, गुणविलास, स्वप्नसामुद्रिकशास्त्र, शकुनशास्त्र भी विषय से सम्बन्धित ग्रन्थ। आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 643 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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