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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा आचार्य राजकुमार जैन बहुत ही कम लोग इस तथ्य को जानते हैं कि जिस प्रकार वैदिक साहित्य से आयुर्वेद का निकट सम्बन्ध है, उसी प्रकार जैन साहित्य और जैनधर्म से भी आयुर्वेद का निकटतम सम्बन्ध है। जैन साहित्य से आयुर्वेद की निकटता का अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि जैन वाङ्मय में अन्य विषयों की भाँति आयुर्वेद शास्त्र या वैद्यक विषय की प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है। जैनागम में वैद्यक (आयुर्वेद) विषय को भी जिनागम के अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एक महत्त्वपूर्ण ज्ञातव्य तथ्य है, कि जैनागम में केवल उसी शास्त्र, विषय या आगम की प्रामाणिकता स्वीकृत की गयी है जो सर्वज्ञ द्वारा कथित या सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव के वचनों पर आधारित एवं प्रतिपादित है। सर्वज्ञ कथन के अतिरिक्त अन्य किसी विषय का जैन आगम में कोई स्थान या महत्त्व नहीं है। जैनधर्म में ऐसे सभी शास्त्रों को श्रुत कहा जाता है, जो सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव के वचनों के आधार पर रचित होते हैं या जिनमें जिनेन्द्र देव के वचन साक्षात् निबद्ध हों। वर्तमान में धार्मिक ग्रन्थों के रूप में, आचारशास्त्र के रूप में, नीतिशास्त्र के रूप में, गणितशास्त्र, ज्योतिष ग्रन्थ, व्याकरण ग्रन्थ, आयुर्वेद ग्रन्थ आदि के रूप में जो भी साहित्य उपलब्ध है, वह-सब जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की उपदेश परम्परा से सम्बद्ध है। भगवान महावीर की दिव्यध्वनि को अवधारण करने वाले उनके प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम ने भगवान महावीर के उपदेशों को धारण कर उसे बारह अंग और चौदह पूर्व के रूप में निबद्ध किया था। यह सम्पूर्ण साहित्य द्वादशांग श्रुत कहलाता है। इस द्वादशांग श्रुत के पारगामी श्रुतकेवली कहलाते हैं। जैनधर्म के अनुसार ज्ञान के धारकों में दो प्रकार के ज्ञानी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं, जो प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्षज्ञान के धारक होते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञानियों में केवलज्ञानी और परोक्ष ज्ञानियों में श्रुतकेवली महत्त्वपूर्ण हैं। केवलज्ञानी समस्त चराचर जगत् को प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं तथा श्रुतकेवली शास्त्र में वर्णित प्रत्येक विषय को स्पष्ट जानते हैं। द्वादशांग श्रुत में बारहवाँ जो दृष्टिवाद नाम का अंग है, उसके पाँच भेदों के आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 621 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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