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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माता-पिता और वंश इत्यादि के विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। अत: इतना ही कहा जा सकता है कि ये दोनों विद्वान् सतीर्थ थे। आचार्य रामचन्द्र ने अपने अनेक ग्रन्थों में अपने को आचार्य हेमचन्द्र का शिष्य बतलाया है। ये उनके पट्टधर शिष्य थे। एक बार तत्कालीन गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह ने आचार्य हेमचन्द्र से पूछा कि आपके पट्ट के योग्य गुणवान् शिष्य कौन है ? इसके उत्तर में हेमचन्द्र ने रामचन्द्र का नाम लिया था। रामचन्द्र अपनी असाधारण-प्रतिभा एवं कवि-कर्म-कुशलता के कारण 'कविकटारमल्ल' की सम्मानित उपाधि से अलंकृत थे। यह उपाधि उन्हें सिद्धराज जयसिंह ने प्रसन्न होकर प्रदान की थी। ___ महाकवि रामचन्द्र समस्यापूर्ति करने में भी चतुर थे। एक बार वाराणसी से विश्वेश्वर कविपत्तन नामक नगर आये थे तथा वे आचार्य हेमचन्द्र की सभा में गये। वहाँ राजा कुमारपाल भी विद्यमान थे। विश्वेश्वर ने कुमारपाल को आशीर्वाद देते हुए कहा'पातु वो हेमगोपाल: कम्बलं दण्डमुद्वहन्'। चूँकि राजा जैन थे, अतः उन्हें कृष्ण द्वारा अपनी रक्षा की बात अच्छी नहीं लगी। अतः उन्होंने क्रोध-भरी दृष्टि से देखा। तभी रामचन्द्र ने उक्त श्लोकार्द्ध की पूर्ति के रूप में 'षड्दर्शनपशुग्रामं चारयत् जैनगोचरे' यह कहकर राजा को प्रसन्न कर दिया। - आचार्य रामचन्द्र की विद्वत्ता का परिचय उनकी स्व-लिखित कृतियों में भी मिलता है। रघुविलास' में उन्होंने अपने को विद्यात्रयीचणम्' कहा है। इसी प्रकार नाट्यदर्पणविवृत्ति की प्रारम्भिक प्रशस्ति में 'विद्यवेदिनः' तथा अन्तिम प्रशस्ति में व्याकरणन्याय और साहित्य का ज्ञाता कहा है। ___'प्रभावकचरित' और 'उपदेशतरंगिणी' से यह ज्ञात होता है कि आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह समकालीन थे तथा उस समय तक रामचन्द्र अपनी असाधारणप्रतिभा के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। आचार्य रामचन्द्र का साहित्यिक-काल वि.सं. 1193 से 1233 के मध्य रहा है। महाकवि रामचन्द्र प्रबन्ध-शतकर्ता के नाम से विख्यात हैं। उन्होंने अपने नाट्यदर्पण में स्वरचित 11 रूपकों का उल्लेख किया है। इसकी सूचना प्राय: 'अस्मदुपज्ञे- 'इत्यादि पदों से दी गयी है, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं- (1) सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, (2) नलविलास-नाटक, (3) रघुविलास-नाटक, (4) यादवाभ्युदय, (5) राघवाभ्युदय, (6) रोहिणीमृगांकप्रकरण, (7) निर्भयभीम-व्यायोग, (8) कौमुदीमित्राणन्दप्रकरण, (9) सुधा-कलश, (10) मल्लिकामकरन्द-प्रकरण और (11) वनमाला-नाटिका। कुमार बिहार शतक, द्रव्यालंकार और यदुविलास आदि-ये उनके अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं। इसके अलावा कुछ छोटे-छोटे स्तव भी पाये जाते हैं। इस प्रकार उनके उपलब्ध आलंकारिक और अलंकारशास्त्र :: 607 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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