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दप्पण' का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसमें अलंकार - सम्बन्धी विवेचन संस्कृत की ही परम्परा के अनुसार किया गया है।
प्रथम शती के आर्यरक्षित और एकादश शती के अलंकारदप्पणकार के अनन्तर हम वाग्भट - प्रथम से शुरू होने वाले जैन आलंकारिकों की परम्परा में प्रवेश करते हैं । यह परम्परा द्वादश शताब्दी से अविच्छिन्न चलती है।
परिचयात्मक विवरण प्रारम्भ करने के पूर्व यह उल्लेखनीय है कि धर्म की दृष्टि से सम्प्रदाय - भेद के होते हुए भी ये सभी आचार्य अलंकार - सम्प्रदाय के अधिकारी प्रवक्ता हैं और सबने अलंकार - शास्त्र के सभी प्रतिपाद्य तत्त्वों पर गम्भीर तथा सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत करते हुए संस्कृत अलंकार - साहित्य को परिपुष्ट किया है।
आर्यरक्षित
आर्यरक्षित की गणना एक विशिष्ट युग-प्रधान आचार्य के रूप में की जाती है । इनका जन्म वीर-निर्वाण संवत् 522 में, दीक्षा (22 वर्ष की आयु में) वीर - निर्वाण संवत् 544 (ई. सन् 17) में, युगप्रधान पद ( 62 वर्ष की आयु में) वीर - निर्वाण संवत् 584 (ई. सन् 57 ) में तथा स्वर्गवास ( 75 वर्ष की आयु में) वीर - निर्वाण संवत् 597 (ई. सन् 70) में माना जाता है । कुछ आचार्यों के मतानुसार आर्यरक्षित का स्वर्गवास वीर - निर्वाण संवत् 584 (ई. सन् 57 ) में हुआ था । इनके पिता का नाम सोमदेव था, जो मालवान्तर्गत दशपुर (मन्दसौर) के राजा उदयन के पुरोहित थे तथा माता का नाम रुद्रसोमा था। अलंकार शास्त्र पर एक रचना अनुयोग द्वार - सूत्र प्राप्त है । अनुयोगद्वार - सूत्र : जैन- परम्परा में आगम - साहित्य का विशेष महत्त्व है । यह आगमसाहित्य अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य के रूप में दो प्रकार है । अंग - बाह्य आगमों में एक है अनुयोगद्वार -सूत्र, जो प्राकृत भाषा में निबद्ध है । इसे चूलिका - सूत्र भी कहते हैं।
अनुयोगद्वार - सूत्र में अनुयोग के चार द्वार - उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय पर विचार किया गया है। उपक्रम के द्वितीय भेद नाम निरूपण के प्रसंग में एक - नाम, द्विनाम, त्रिनाम आदि क्रमशः दस नामों तक उतनी - उतनी संख्या वाले विषयों का प्रतिपादन है। नौ नामों के अन्तर्गत रसों का विवेचन किया गया है। रसों के नाम हैं- वीर, श्रृंगार, अद्भुत, रौद्र, व्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त ।
इसी प्रकार अनुगम के अन्तर्गत अलीक, उपघातजनक, निरर्थक, छल आदि बत्तीस दोषों का उल्लेख किया गया है।
अलंकार - दप्पणकार
'अलंकार - दप्पण' के कर्ता का नाम अज्ञात है । तथापि इसके प्रारम्भिक मंगलाचरण '
आलंकारिक और अलंकारशास्त्र :: 603
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