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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पना स्वीकार नहीं है और न ही यह स्वीकृत किया जा सकता है कि कोई भी ईश्वर किसी भी पदार्थ में अपनी इच्छा से कुछ भी करने के लिए समर्थ होता है। जैनदर्शन के अनुसार ईश्वर की इच्छा होना ही असम्भक है, क्योंकि ईश्वर तो वीतराग और सर्वज्ञ होता है, जो सारी वस्तुओं को जानकर भी उनके प्रति वीतराग भाव से निराकुल होकर अपने अनन्तगुण स्वरूप ऐश्वर्य में निमग्न रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदार्शनिकों के ईश्वर के विषय में जो अवधारणा है, वह अनादिकाल से आज तक एक-सी ही बनी हुई है। जो ईश्वर के विषय में कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा, वही बात बाद वाले आचार्यों ने भी कही है। परस्पर में किसी भी प्रकार विरोध नहीं है, परन्तु अन्य मतावलम्बियों के दार्शनिकों में पूर्वापर- विरोध देखने को प्राप्त होता है। अत: अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में ईश्वर का स्वरूप स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है और यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शन सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर नहीं मानता है, परन्तु ईश्वर अवश्य स्वीकार करता है। सन्दर्भ 1. न्यायकुमुदचन्द्र परिशीलन, प्रो. उदयचन्द्र जैन, प्राच्य श्रमण भारती, मुजफ्फरनगर पृ. 8-13 2. सरस्वती रहस्योपनिषद् श्लो. 16-17 3. श्वेताश्वतरोपनिषद् 312-11, 4/12-15 4. शाङ्करभाष्य (ब्रह्मसूत्र) 3/2/41 5. तदेव 2/1/34; 2/3/41-42 6. न्यायदर्शन, वात्स्यायन भाष्य, सं. द्वारिकादास शास्त्री, चौ. सं. सी. 1770 4,1,20, 21 7. वैशेषिकसूत्र, 9,1,11-13 8. न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका, सं. रामेश्वर शास्त्री, चौ.सं.सी. वाराणसी 1925 4,1,21 9. सा. का. 57 10. सा. प्र. भा. मंगलाचरण 2 11. दीयतां मोक्षदो हरिः, 1 वही 61 54 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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