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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपयोगी है, उसी तरह यह नाममाला प्रौढ़ विद्वानों के लिए भी उपयोगी है। देशीनाममाला में मराठी, कन्नड़, गुजराती, ब्रज और अवधी भाषा के कई शब्द पाये जाते हैं। अतः प्राकृत भाषा के साथ-साथ अन्य प्रादेशिक भाषाओं और बोलिओं के शब्दों को अवगत करने के लिए यह कोश बहुत उपयोगी है। वस्तुकोश- यह कोश वररुचि, हलायुध, शाश्वत, अमरसिंह आदि के कोशों को देखकर बनाया गया है। इसके रचयिता नागवर्म द्वितीय हैं। इस कोश में कन्नड़ भाषा में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दों का अर्थ पद्यमय रूप से किया गया है। इसका रचना काल 1139-1149 ईसवी है। संस्कृत-कन्नड़ का यह सबसे बड़ा कोश माना जाता ___ लिङ्गानुशासन- यह भी हेमचन्द्र प्रणीत एक लघु अभिधानकोश है। इसमें 138 श्लोक हैं। इसके सात विभाग हैं। पहले पुलिंगाधिकार में 17, दूसरे स्त्रीलिंगाधिकार में 33, तीसरे नपुंसकलिंगाधिकार में 24, चौथे पुंस्त्रीलिंगाधिकार में 12, पाँचवें पुनपुंसकलिंगाधिकार में 36, छठे स्त्रीनपुंसकलिंगाधिकार में 5 तथा स्वतस्त्रिलिंगाधिकार में मात्र 6 श्लोक हैं, अन्त में ५ श्लोक और भी हैं। उसके बाद 38 श्लोकों में निबद्ध 'एकाक्षर कोश' भी है, जिसमें केवल एक अक्षर वाले शब्दों के विविध अर्थों का उल्लेख किया गया है। विश्वलोचनकोश- श्रीधरसेन कृत इस कोश का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका दूसरा नाम मुक्तावलिकोश भी है। इसका रचना काल १४वीं शती है। यह कोश विद्यार्थियों एवं प्रौढ़विद्वानों को समान उपयोगी है। अनेक ग्रन्थों में इसके उद्धरण मिलते हैं। इस कोश में 245 श्लोक हैं। इनमें स्वरवर्ण और ककार आदि के क्रम से शब्दों का संकलन किया गया है। सम्पादक के अनुसार, "संस्कृत में कई नानार्थ कोश हैं, परन्तु जहाँ तक हम जानते है कि कोई भी इतना बड़ा और इतने अधिक अर्थों को बतलाने वाला नहीं है। इसमें एक-एक शब्द को जितने अर्थों का वाचक बतलाया है, दूसरों में प्रायः इससे कम ही बतलाया है। नाममाला शिलोंछ- जिनदेवसूरि ने अभिधानचिन्तामणि के पूरक के रूप में विक्रम संवत् 1433 में इसकी रचना की थी। इसमें 149 श्लोक हैं। शेषनाममाला- हेमचन्द्र कृत यह कोश पाँच खंडों में विभक्त है। कुल श्लोक संख्या 208 है। पहले देवाधिकांड में 2, दूसरे कांड में 90, तीसरे कांड में 65, व चौथे कांड में 40 और पाँचवें नारक कांड में 2 तथा 9 अन्य श्लोक हैं। यह लोकप्रचलित शब्दावली का एक सुन्दर संग्रह दिखाई देता है। अनेकार्थ ध्वनिमंजरी- यह एक लघुकाय रचना है। इसके रचयिता कोई जैन मुनि हैं। इसमें कुल 224 श्लोक व तीन परिच्छेद हैं। प्रथम श्लोकाधिकार में 104, 590 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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