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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईश्वर को देखती है और उस ईश्वर को जिस क्रिया विशेष के द्वारा जो कर्म सम्पन्न कराना होता है, वह वह करता है, जबकि शर्ववर्मा की परम्परा से साफ दिखता है कि कर्ता जो क्रिया करता है, उसका फल कर्म है अर्थात् कर्म प्रत्येक क्रिया का फल है। बिना क्रिया के कर्म की स्थिति नहीं है। मुक्तात्मा जब सांसारिक क्रियाओं से मुक्त हो जाती है, परिणामस्वरूप वह कर्म से निष्कलंक हो जाती है। ऐसे ही करण की परिभाषा करते हुए कातन्त्रकार कहते हैं कि जिसके द्वारा क्रिया की जाय, वह करण है, जबकि पाणिनि कहते हैं कि 'साधकतमं करणम्' क्रिया-सिद्धि में जो प्रकृष्ट उपकारक होता है, वह करण कहलाता है और क्रिया ईश्वर-इच्छा से होती है, तो भाव यह हुआ कि ईश्वर-इच्छा रूप क्रिया के सम्पादन में जो भी जीव लगते हैं, वे ही प्रकृष्ट उपकारक होते हैं, जबकि यह बात शर्ववर्मा नहीं मान पाते, क्योंकि वे प्रत्येक क्रिया को प्रत्येक जीवरूप कर्ता के अधीन देखते हैं और उस क्रिया के सम्पादन में होने वाली जो भी वस्तु या क्रिया माध्यम बनती है, उसे वे करण कहते हैं, यथा- 'येन क्रियते तत् करणम्'। सम्प्रदान के विषय में भी पाणिनि की मान्यता है- दानभूत कर्म के द्वारा जो अभिप्रेत होता है, वह सम्प्रदान-संज्ञक कहलाता है तथा उनकी परम्परा यह भी मानती है, क्रिया के द्वारा जो अभिप्रेत होता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है। ईश्वर-इच्छा हुई गाय को दान देने की, अब प्रश्न उठता है कि गाय किसे दी जाए?... गाय रूप दान कर्म का अभिप्रेत हुआ ब्राह्मण, इसलिए ब्राह्मण सम्प्रदान कहलाया। इसीतरह कोई नारी शयन-क्रिया ईश्वर-इच्छा से पति के लिए करती है, तो शयन-क्रिया का अभिप्रेत हुआ पति, इसलिए पति सम्प्रदान है। ये स्थितियाँ कातन्त्रकार को ठीक नहीं लगती। वे कहते हैं, जिसे कुछ देने की इच्छा हो या जिसे कुछ रुचिकर लगता हो अथवा जो धारण करता हो, कातन्त्रकार की दृष्टि में वह सम्प्रदानसंज्ञक होता है। इससे लगता है कि कातन्त्रकार की परिभाषा भी यद्यपि अभिप्रायार्थक है, पर वह ईश्वर-इच्छा केन्द्रित नहीं है। अपादान की परिभाषा पाणिनीय परम्परा में 'ध्रुवमपाये अपादानम्' अपायक्रिया होने पर अर्थात् अलग होने पर जो ध्रुव रहे, उस कारक में अपादान संज्ञा होती है, क्योंकि कातन्त्रकार कहते हैं कि- 'यतोऽपैति भयमादत्ते तदपादानम्' जिससे दूर होता है, डरता है और ग्रहण करता है, वह कारक अपादान संज्ञा वाला होता है। यद्यपि पाणिनि की परिभाषा में स्वेच्छा से अपाय-क्रिया या रक्षा-क्रिया होती है। कातन्त्र में इसतरह का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसके साथ ही कातन्त्रकार ने अपादान की प्रक्रिया को सरल बनाया है, इसीलिए अपादान संज्ञक पंचमी का सर्वनाम में प्रयोग करके एक ही पद से अपाय, भय और रक्षा - तीनों क्रियाओं के स्रोत को अपादान में रखा गया है, जबकि पाणिनि परम्परा में इसके लिए तीन भिन्न स्रोत हैं। अधिकरण की परिभाषा पाणिनि और कातन्त्र में लगभग समान-सी है। पाणिनि की प्रक्रिया में अधिकरण के लिए कहा गया है- 'आधारोऽधिकरणम्'। क्रिया की सिद्धि में जो आधार है, उस कारक की अधिकरण संज्ञा होती है। ऐसे ही कातन्त्रकार कहते हैं कि 'य आधारस्तदधिकरणम्' जो 580 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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