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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करते, बल्कि शब्द की ध्वन्यात्मक शक्ति के द्वारा बोध्य यथार्थ जगत् की जो वस्तु है, उस तक ले जाते हैं और उनके टीकाकार तो यह भी कहते हैं कि वस्तुतः अर्थ के प्रयोग में और शब्द के प्रयोग में सबसे बड़ा प्रमाण यदि कोई है, तो वह है लोक व्यवहार । भाव यह है कि शास्त्र से कोई शब्द न भी बन रहा हो और लोक व्यवहार में वह प्रचलित हो, तो उसे हमें स्वीकार लेना चाहिए और शास्त्र को उसे सिद्ध करने के नियम खोजने चाहिए तथा अन्ततः यदि शास्त्र में नियम न हों, तो उसे नियम देने चाहिए; जबकि भाष्यकार शब्द के अर्थ-निर्धारण में लोक को तो प्रमाण मानते हैं, पर शब्द के प्रयोग को पूरी तरह लोकाश्रित नहीं छोड़ते, इसीलिए तो वहाँ उल्लेख मिलता है कि 'एकोशब्दः सम्यग्ज्ञातः.... कामधुक् भवति' अर्थात् धार्मिक क्रियाओं में शब्द के जिस रूप की स्वीकृति शास्त्र में है, ठीक उसी रूप में प्रयोग करने पर ही उस धार्मिक क्रिया के लक्ष्य की प्राप्ति होती है और इसप्रकार वे शब्द-साधन को पूरी तरह शास्त्र - आधारित मानकर ही चलते हैं। पाणिनि परम्परा जहाँ अव्ययीभाव समास करने के लिए अनेक सूत्रों का विधान करती है, वहीं कातन्त्रकार केवल एक सूत्र से वह काम कर लेते हैं। वह सूत्र है- 'पूर्वं वाच्यं भवेद् यस्य, सोऽव्ययीभाव इश्यते'। यद्यपि पाणिनीय परम्परा में भी यह माना जाता है कि अव्ययीभाव समास में पूर्वपद प्रधान होता है, पर इसका उल्लेख सूत्र में नहीं मिलता, जबकि कातन्त्र में वह उल्लेख ही अव्ययीभाव का केन्द्र है। पूर्व शब्द-रूप वाच्य रूप से प्रधान जहाँ हो, वहाँ अव्ययीभाव समास होता है और उसके प्रतिपाद्य अर्थ में वाचकत्व होने पर भी अर्थ की प्रधानता की दृष्टि से ही शब्द की प्रधानता की बात कही गई है; इसीलिए उनका सूत्र है कि- 'पूर्वं वाच्यं भवेद्यस्य सोऽव्ययीभाव इश्यते' । कातन्त्रकार की कारक की धारणाएँ भी अपने में विशिष्ट हैं और उनको देखने से लगता है कि उनके पीछे एक पूरी की पूरी भिन्न दार्शनिक पृष्ठभूमि काम करती है। उदाहरण के लिए कर्ता को ही लें - कर्ता की परिभाषा करते हुए वे कहते हैं कि जो क्रिया करता है, वह कर्ता है- यः करोति स कर्ता । भाव यह है कि जो क्रिया को करने वाला है, वह कातन्त्र के अनुसार कर्ता है, उससे भिन्न कर्ता नहीं हो सकता, जबकि पाणिनीय परम्परा कर्ता को स्वतन्त्र मानती है, इसीलिए वहाँ सूत्र है - स्वतन्त्रः कर्ता । कातन्त्रकार भी कर्ता को स्वतन्त्र मानते हैं, पर उसे निष्क्रिय नहीं। वह क्रिया को करने वाला है अर्थात् कातन्त्रकार वेदान्तियों से इस बात पर भिन्न हैं कि वहाँ प्रत्येक जीव स्वतन्त्र होते हुए भी कुछ कर नहीं सकता, जो कुछ क्रिया उसके द्वारा होती है, ईश्वर- इच्छा से होती है । यह कातन्त्रकार को स्वीकार नहीं है । इसीप्रकार जो किया जाता है, वह कर्म है । भाव यह है कि जैन मान्यता के अनुसार कोई भी कर्म किसी व्यक्ति के साथ बिना किये हुए नहीं जुड़ता है, इसीलिए उसे क्रिया का फल माना गया है। इसीलिए वहाँ परिभाषा दी गयी है'यत् क्रियते तत् कर्म' जबकि पाणिनीय परम्परा में कर्ता के ईप्सिततम को कर्म माना गया है— 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' । भाव यह है कि पाणिनीय परम्परा जगत् के कर्ता के रूप में For Private And Personal Use Only व्याकरण :: 579
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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