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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में वही ब्रह्म है, वही अर्थ रूप से भासित होता है और उसी से जगत् की प्रक्रिया (सृष्टि) चलती है। शब्द/भाषा के दार्शनिक पक्ष पर विचार करने से पहले यह आवश्यक है कि हम जैन दार्शनिकों द्वारा दी गई शब्द की परिभाषाओं पर कुछ विचार करें। इस दृष्टि से हम सबसे पहले सर्वार्थसिद्धि की शब्द की परिभाषा को लेते हैं- "शब्दत इति शब्दः, शब्दनं शब्दः" अर्थात् जो शब्द रूप होता है, वह शब्द है, शब्दन शब्द है। सर्वार्थसिद्धि की इस शब्द की परिभाषा से दो बातें खासकर सामने आती हैं- पहली यह कि शब्द रूपी है अर्थात् रूपवाला होता है और दूसरी यह कि शब्द में ध्वनि रूप क्रिया अवश्य होती है। इसके बाद हम जैन दार्शनिकों में राजवार्तिककार द्वारा की गई शब्द की परिभाषा को लेते हैं- "शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्याययति, शप्यते येन शपनमात्रं वा शब्दः" अर्थात् जो अर्थ का आह्वान करता है, अर्थ को कहता है, या जिसके द्वारा अर्थ को कहा जाता है अथवा शपन मात्र शब्द है। राजवार्तिक की शब्द की यह परिभाषा अर्थपरक है, अर्थात् शब्द के उद्देश्य सम्प्रेष्य को मूल में रखकर की गयी है। इस परिभाषा से तीन बातें उभरकर आती हैं- शब्द का उद्देश्य अर्थ को । अभिप्राय को सम्प्रेषित करना है, दूसरी कि सम्प्रेषण रूप क्रिया में शब्द कर्म-साधन के रूप में है, तीसरी कि शब्द अपनी पर्याय में क्रियाधर्म वाला जैनदर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों में शब्द के पर्याय के रूप में 'नाम' पारिभाषिक का प्रयोग और मिलता है। जिसके द्वारा अर्थ को जाना जाए अथवा अर्थ को अभिमुख करें, वह नाम कहलाता है। धवला में इस नाम को ही परिभाषित करते हुए लिखा गया है- जिस नाम की वाचक रूप से प्रवृत्ति में जो अर्थ अवलम्बन होता है, वह नाम-निबन्धन है, क्योंकि उसके बिना नाम की प्रवृत्ति सम्भव नहीं। जैनदर्शन कहता है कि शब्द पुद्गल की पर्याय है, इसीलिए जैनदर्शन में शब्द को पुद्गल-जन्य और द्रव्य रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। प्रो. दास गुप्त के अनुसार जैनदर्शन में पुद्गल एक भौतिक पदार्थ है और यह परिमाण-विशेष से युक्त माना गया है और इस पुद्गल की उत्पत्ति परमाणुओं से होती है। ये परमाणु जैनदर्शन में परिमाण-रहित एवं नित्य माने गये हैं। नवीं शती के जैनाचार्य प्रभाचन्द्र ने शब्द को पुद्गल का कार्य मानते हुए उन्हें पुद्गलों में उसी प्रकार आश्रित माना, जैसे कोई भी कार्यद्रव्य अपने कारण द्रव्य में आश्रित रहता है। गुण की दृष्टि से जैनदर्शन शब्द को सामान्य-विशेषात्मक मानता है। सभी शब्दों में अनुगत रहने वाला उसका रूप शब्दत्व सामान्यात्मक है। शंख शब्द, घंटा शब्द, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि उसके विशेषात्मक रूप हैं। शब्द की यह सामान्यविशेषात्मकता जैनदर्शन के अनुसार उसकी पौद्गलिकता का प्रमाण है। पौद्गलिक होने जैनों का भाषा-चिन्तन :: 561 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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