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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्र. शब्द | अभयदेव सूरि का मत बी.बी. दत्त का मत आधुनिक मत । लं डा 1. परिकम्म | संकलन आदि अंकगणित के परिकर्म (8) अंक गणित के आव | मूलभूत परिकर्म 2. ववहारो श्रेणी व्यवहार या अंकगणित के परिकर्मों अंक गणित के आठ पाटी गणित पर आधारित प्रश्न परिकर्मों पर आधारित प्रश्न | समतल ज्यामिति | रेखा गणित लोकोत्तर गणित (लोकोत्तर प्रमाण) 4. रासी अन्नों की ढेरी राशियों का आयतन समुच्चय सिद्धान्त आदि निकालना 5. कलासवन्ने | भिन्न भिन्न भिन्न 6. जावत्-तावत् | प्राकृतिक संख्याओं। | सरल समीकरण सरल समीकरण का गुणन या संकलन 7. वग्गो | वर्ग वर्ग समीकरण वर्ग समीकरण 8. घणो घन घन समीकरण घन समीकरण 9. वग्ग-वग्गो | चतुर्थ घात चतुर्थ घात समीकरण उच्च घात समीकरण 10. विकप्पो क्रकचिका व्यवहार विकल्प गणित विकल्प एवं भंग (क्रमचय, संचय) उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि जैन-आगमों में निहित गणितीय विषयों की सूची अत्यन्त व्यापक है और उसमें गणित का बहुत-बड़ा क्षेत्र समाहित है। जैन गणित की कतिपय मौलिकताएँ निम्न प्रकार हैं जैनाचार्यों ने संख्या का प्रारम्भ 2 से किया है, यद्यपि वे गणना की प्रक्रिया 1 से शुरू करते हैं। उनकी दृष्टि में संख्या समूह की बोधक होती है एवं 1 (एक) वस्तु व्यावहारिक दृष्टि से कोई समूह नहीं बनाती संख्याएँ ही जब व्यष्टि रूप में गिनती/गणना के काम आती हैं, तब गिनतियाँ कहलाती हैं। इस प्रकार सर्वाधिक छोटी संख्या जघन्य संख्यात 2 है। ऐसी संख्याएँ जिनके वर्ग में से स्वयं संख्या को घटाने पर संख्या से अधिक शेष बचता हैका एक अन्य वर्ग कृति बनाया गया है संक्षिप्ततः, जो निम्न प्रकार है(i) गिनतियाँ 1, 2, 3, 4, 5,. (ii) संख्याएँ 2, 3, 4, 5, 6,. (iii) कृतियाँ 3, 4, 5, 6, 7,.... 2. जैनाचार्यों ने संख्याओं को व्यक्त करने हेतु अनेक विधियों का प्रयोग किया है। यथा (i) अंकों द्वारा 502 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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