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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावों का (परिवर्तनों का) कर्ता परद्रव्य ही है। आत्मभाव आत्मा ही है । एक को दूसरों के सुख-दुःख, जीवन-मरण का कर्ता मानना अज्ञानता है। यदि ऐसा मान लिया जाए तो फिर स्वयं - कृत शुभाशुभ - कर्म निष्फल सिद्ध होंगे। इस सन्दर्भ में आचार्य अमितगति का यह कथन स्मरणीय है स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ।। निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ।। इस तरह जैन- कर्म - सिद्धान्त दैववाद नहीं, अपितु अध्यात्मवाद है, क्योंकि इसमें दृश्यमान सभी अवस्थाओं को कर्मजन्य कहकर यह प्रतिपादन किया गया है कि 'आत्मा अलग है और कर्मजन्य शरीर अलग है' इस भेद - विज्ञान का सर्वोच्च उपदेष्टा होने के कारण जैन-कर्म-सिद्धान्त अध्यात्मवाद का ही दूसरा नाम सिद्ध होता है । जैन जैविक चिन्तन निश्चय नय की दृष्टि से जो चेतन है, प्राण धारण करता है और जीवित है, जीव द्रव्य से अभिहित किया गया है । व्यवहार की दृष्टि से आयु, बल, श्वासोच्छ्वास, एवं इन्द्रिय- इन चार प्राणों से जो जीवित रहता है, उसे जीव- द्रव्य कहते हैं । जीव के मुख्य रूप से दो भेद हैं: संसारी जीव और मुक्त जीव । संसारी जीवों के भी दो भेद बताये गये हैं: त्रस और स्थावर जीव । इन्द्रियों की अपेक्षा से जीवों के पाँच भेद हैं: एकेन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय जीव, त्रि - इन्द्रिय जीव, चतुरिन्द्रिय जीव एवं पंचेन्द्रिय जीव। स्थावर जीव पाँच प्रकार के होते हैं : पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव । चलते-फिरते त्रस जीवों की श्रेणी में दो से पंचेन्द्रिय जीव समाहित हैं । इन्द्रियों के आधार पर यह वर्गीकरण किया जाता है । 1 जीव की जैविक यात्रा के विविध आयामों की मीमांसा करने के क्रम में चौरासी लाख जैविक जातियों / प्रकारों का अभिलेखन तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार ने प्रस्तुत करते हुए सिर्फ जैविक विविधता की आख्या प्रस्तुत की है, प्रत्युत जन्म, जीवन, मृत्यु, पुनर्जन्म आदि के चक्र की अनन्तता की भी आख्या प्रस्तुत की है- पर्यावरणीय समग्रता के सन्दर्भ में। जैविक रूपों के वैविध्य की चर्चा तब और विस्मयकारी हो जाती है, जब लुवेन्हाक के सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार के सदियों पहले ही आचार्यों द्वारा सूक्ष्मदर्शियों का विस्तृत विवरण गहरे - विश्लेषण के साथ उपलब्ध होता है । निगोद की संज्ञा से अभिहित इन सूक्ष्मजीवों के आकार, प्रकार गुणों के विशद वर्णन के अतिरिक्त पृथ्वीकाय, वायुकाय, जलकाय जीवों का भी विस्तृत वर्णन सम्पूर्ण जैविक जगत् के प्रति आचार्यों 492 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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