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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् जो आत्मा जिस समय जिस भाव को करता है, उस समय उस भाव का कर्ता वही है। ज्ञानी का भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी का भाव अज्ञानमय होता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र भी लिखते हैं ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि। सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते॥ 67॥ कर्ता और कर्म के सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत् कर्म। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया। 51॥ अर्थात जो पदार्थ परिवर्तित होता है, वह अपनी परिणति का स्वयं कर्ता है और वह परिणमन उसका कर्म है और परिणति ही उसकी क्रिया है। ये तीनों वस्तुतः एक ही वस्तु में अभिन्न रूप में ही हैं, भिन्न रूप में नहीं। एक: परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य। एकस्य परिणतिः स्यात् अनेकमप्येकमेव यतः।। 52 ॥ द्रव्य अकेला ही निरन्तर परिणमन करता है, वह परिणमन भी उस एक द्रव्य में ही पाया जाता है और परिणति क्रिया उसी एक में ही होती है, इसलिए सिद्ध है कर्ता, कर्म, क्रिया अनेक होकर भी एक-सत्तात्मक है। तात्पर्य यह है कि हम अपने परिणमन के कर्ता स्वयं हैं, दूसरे के परिणमन के कर्ता नहीं हैं। आगे चलकर आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं आसंसारत एव धावति. परं कुर्वेऽहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः। तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तत् किं ज्ञानघनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मनः॥ 55 ॥ अर्थात् संसारी प्राणियों की अनादि काल से ही ऐसी दौड़ लग रही है कि मैं पर को ऐसा कर लूँ। यह मोही अज्ञानी पुरुषों का मिथ्या अहंकार है। जब तक यह टूट न हो, तब तक उसका कर्म-बन्ध नहीं छूटता। इसीलिए वह दुःखी होता है और बन्धन में पड़ता है। इसी को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने यह सिद्धान्त स्थापित किया है कि आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः। आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते॥ 56॥ इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा अपने ही भावों का कर्ता है और परद्रव्यों के धर्म और विज्ञान :: 491 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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