SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हजारों-हजार मील दूर पहुँचते हैं, आभामण्डल एवं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के माध्यम से कैसे प्राणों को समझना, उनके प्रयोग करना, वाणी (वाक्) के क्षेत्र को ब्रह्म की तरह समझ पाना, इच्छाओं के निर्माण में वाक् के स्पन्दनों की भूमिका जान लेना हमारे गहन स्वार्थ की साधना से परम मुक्ति के परमार्थ की सम्प्राप्ति का क्षेत्र है। विचार, भाषा, अर्थ, वर्ण आदि को जान लेना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि मौन को जान लेना। व्यक्ति को उसके विचारों से ही जाना जाता है। विचार ही ज्ञान का धरातल है। इनको जाने बिना ज्ञाता और ज्ञेय के साथ एकाकार हो ही नहीं सकते। ज्ञान योग के द्वारा यदि कर्मों का विपाक करना है, तो विचारों की प्रकृति (सत, रज, तम) को जान लेना पहला स्वार्थ है। धर्म का उपयोग इसके बिना न समझेंगे, न ही कर पाएँगे। विचारों की उष्णता को हृदय की शीतलता से साथ समन्वित करना भी सुख का मार्ग है। अहंकार की शक्ति एवं दिशा पर नियन्त्रण भी विचारों की प्रकृति से जुड़ा है। पृथक् विवेच्य; धर्म और विज्ञान-ज्ञान और सत्य के सन्धान-बिम्ब विज्ञान एवं अध्यात्म के विवेच्य पृथक हैं। विज्ञान में ज्ञान पहले, विश्वास बाद में होता है, जबकि धर्म में विश्वास पहले, ज्ञान बाद में आता है। अध्यात्म परमार्थ ज्ञान है, आत्मा-परमात्मा सम्बन्धित ज्ञान है, इल्मे इलाही है, चिन्मय सत्ता का ज्ञान है। विज्ञान लौकिक जगत का ज्ञान है, भौतिक सत्ता का ज्ञान है, पदार्थ, वस्तु, रसायन, प्रकृति का विश्लेषणात्मक-विवेचनात्मक और सूचनात्मक ज्ञान है। सामान्य धारणा है कि दोनों विपरीतार्थक हैं। भविष्य के लिए यह सोचना है कि दोनों की मूलभूत अवधारणाओं में किस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है? ___ आधुनिक विज्ञान करणीय या कारण और प्रभाव के नियम का समर्थन करता है। हरेक प्रभाव का एक मूल या ज्ञात कारण होना चाहिए। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। यह कारण ही कारक का पर्याय है। हर कार्य में कारण-कार्य भाव रहता है। कारक शब्द में शक्ति भी है, ऊष्मा भी है। देने का भाव भी है। वैसे तो कर्म के लिए पहला कारक इच्छा होती है। इच्छा (अवग्रह) के बिना चेष्टा (ईहा) नहीं होती। अवगम से ही मानो स्वीकृति मिल गयी। तब प्रश्न उठता है कि क्या इच्छा का भी कोई कारक होता है। इच्छा पैदा नहीं की जाती। इच्छा का एक कारक होता है; ज्ञान। जिस विषय का ज्ञान नहीं, उसके बारे में इच्छा नहीं उठती। जो उठती है, तब उसका कारक ज्ञान न होकर; प्रारब्ध होता है। गीता में कृष्ण ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय दे तीनों सदा साथ रहते हैं। मूल में तो ज्ञाता की इच्छा ही रहती है। बिना ज्ञाता के ज्ञेय का ज्ञान मानव के लिए हित और अहित दोनों कर सकता है। भारत और पश्चिम के ज्ञान का मूल भेद यही है। हमारा ज्ञान आज भी ज्ञान ही माना जाता है। "एको ज्ञानं ज्ञानम्" इसकी परिभाषा है। ब्रह्माण्ड में सब धर्म और विज्ञान :: 473 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy