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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाविष्ट हैं, किन्तु जगत् दृष्टि का चारित्र धारण कर लेने से ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती। जैसे यदि किसी ने मुनिदीक्षा ले ली। वह मुनिदीक्षा ले लेने मात्र से अपने आपको सम्यग्दर्शन की भी प्राप्ति हुई मान ले, तो यह अज्ञान ही है। इसी से समस्त जिनागम में सम्यक्चारित्र धारण करने से पहले सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना आवश्यक बतलाया है। सम्यग्दर्शन के बिना धारण किया गया जैनाचार भी सम्यक्चारित्र नहीं कहलाता। चारित्र धारण से पूर्व यह निश्चय कर लेना चाहिए कि हम इस चारित्र को क्यों धारण कर रहे हैं। उसका लक्ष्य या उद्देश्य क्या है? धर्म का लक्ष्य तो पंचपरावर्तन रूप दुःखमयी संसार से छुड़ाकर उत्तम, अविनाशी, स्वाधीन सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति है और वह संसार के दुःखों के मूलकारण कर्मबन्धन रूप मोह-अज्ञान भाव को नष्ट किये बिना सम्भव नहीं है। अत: सच्चा, यथार्थ धर्म वही है, जिससे कर्मबन्धन कटते हैं। ऐसी दृष्टि से जो धर्माचरण करता है, वही यथार्थ में धर्मात्मा होता है। ऐसी दृष्टि के लिए मोक्ष का श्रद्धान होना आवश्यक है। यदि मोक्ष का ही श्रद्धान न हो, तो मोक्ष के उद्देश्य से धर्माचरण की भावना कैसे हो सकती है? मोक्ष के श्रद्धान के लिए आत्मा के शुद्ध स्वरूप का श्रद्धान होना आवश्यक है। जो आत्मा के इस शुद्ध स्वरूप की श्रद्धा करके उसकी प्राप्ति की भावना से धर्माचरण करता है, वह संसार के विषय-जन्य सुख में उपादेय बुद्धि नहीं रखता है। स्व-पर पदार्थों के भेद विज्ञान पूर्वक जैसे-जैसे उत्तम तत्त्व अर्थात् शुद्ध आत्मा का स्वरूप जानने, अनुभव में आने लगता है, वैसे-वैसे ही सहज उपलब्ध रमणीय पंचेन्द्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं। यदि जीव की विषय-भोगजन्य सुख में उपादेय बुद्धि है अर्थात् वे अच्छे लगते हैं तो यह जीव तो आस्रव-बन्ध को अच्छा समझता है, संसार रुचि वाला है, वह मोक्षसुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न ही नहीं कर रहा है और ऐसी स्थिति में समस्त धर्माचरण संसार की प्राप्ति, वृद्धि एवं दुःखरूप फल का ही कारण है। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने 'समयसार' में कहा है सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्म भोग-णिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ 275॥ अर्थात् वह (अभव्यजीव) भोग के निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसी की प्रतीति करता है। उसी की रुचि करता है और उसी का स्पर्श करता है, परन्तु कर्मक्षय में निमित्त रूप धर्म की नहीं (अर्थात् कर्मक्षय के निमित्त रूप धर्म की न तो श्रद्धा करता है, न उसकी प्रतीति करता है, न रुचि करता है, और न ही उसका स्पर्श करता है।) ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 469 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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