SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छिपाना। उक्त आठ अंगों के पालन से सम्यग्ज्ञान पुष्ट एवं परिष्कृत होता है। 'महापुराण' ग्रन्थ में आचार्य जिनसेन एवं आचार्य गुणभद्रस्वामी ने इस सम्यग्ज्ञान की पाँच भावनाएँ भी व्यक्त की हैं वाचना पृच्छ ने सानुप्रेक्षणं परिवर्तनम् । सद्धर्मदेशनं चेति ज्ञातव्याः ज्ञानभावना।। 21 सर्ग/96 श्लोक शास्त्रों का स्वयं पढ़ना, दूसरों से पूछना, पदार्थ स्वरूप का पुनः पुनः चिन्तवन करना, श्लोक आदि कण्ठस्थ करना तथा समीचीन धर्म का उपदेश देना,- ये पाँच ज्ञान की भावनाएँ जाननी चाहिए। सम्यक् चारित्र . आचार्यवर कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रमाण वाक्य रूप में प्रवचनसार' ग्रन्थ के आरम्भ में धर्म को चारित्र स्वरूप कहा है। चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोह क्खोह विहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥7॥ अर्थात् चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है, वह साम्य है या समता रूप है, ऐसा कहा है और साम्य मोह-क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है। 'दर्शन पाहुड़' में उपदिष्ट ‘धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है' (दंसणमूलो धम्मो) इस लक्षण को पढ़कर जागरुकता के अभाव में अज्ञानता वश भ्रम पैदा होता है कि धर्म सम्यग्दर्शन रूप है या सम्यक्चारित्र रूप है?... किन्तु यदि शब्द-प्रयोग को जागरूकता पूर्वक देखा जाए, तो भ्रम स्वयमेव नष्ट हो जाता है। दर्शन के साथ प्रयुक्त 'मूल' शब्द नींव रूप धर्म का उद्घोषक है और चारित्र के साथ 'खलु' शब्द 'वास्तव में धर्म है' कह कर निर्देश किया है कि सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाला चारित्र ही सम्यक्चारित्र रूप होता है। सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, फलागम में से कुछ भी सम्भव नहीं है। आचार्य उमास्वामी महाराज ने भी तत्त्वार्थ सूत्र' में 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' में सम्यग्दर्शन को प्रथम कारण रूप ही प्रस्तुत किया है। सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र होते हैं और सम्यक्चारित्र को अन्त में रखने का कारण यह है कि वह सम्यक्चारित्र मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् कारण है अर्थात् जैसे सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार सम्यक्चारित्र ही यथार्थ में धर्म है। उसकी आराधना में सब आराधनाएँ 468 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy