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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रिया रूप अनुष्ठान के अभाव के कारण श्रद्धानमात्र से, और ज्ञान तथा श्रद्धान के अभाव के कारण क्रिया मात्र से मोक्ष नहीं होता, क्योंकि ज्ञान व श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है इसलिए मोक्षमार्ग के तीन पने की कल्पना जाग्रत होती है। कहा भी है- "क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियों की क्रिया निष्फल है। एक चक्र से रथ नहीं चलता, अतः ज्ञान-क्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। जैसे कि दावानल से व्याप्त वन में अन्धा व्यक्ति तो भागता - भागता भी जल जाता है और लंगड़ा व्यक्ति देखते-देखते जल जाता है। यदि अन्धा और लँगड़ा दोनों मिल जाएँ और अन्धे के कन्धों पर लँगड़ा बैठ जाए, तो दोनों का उद्धार हो जाएगा। तब लँगड़ा तो रास्ता बताता हुआ ज्ञान का कार्य करेगा और अन्धा चलता हुआ चारित्र का कार्य करेगा। इस प्रकार दोनों ही वन से बचकर नगर में आ सकते हैं । " आचार्य अकलंक देव, तत्त्वार्थ राजवार्तिक 1/1/49 कविवर पं. दौलतराम जी ने 'छहढाला' में कहा है मोक्षमहल की परथम सीढ़ी या बिन ज्ञान सम्यकता न लहै सो दरसन धारो भव्य 'दौल' समझ सुन चेत सयाने काल वृथा मत खोवै । यह नरभौ फिर मिलन कठिन है जो सम्यक् नहिं होवै ॥ 3/17 ॥ For Private And Personal Use Only चरित्रा । पवित्रा ॥ अर्थात् मोक्षरूपी महल में प्रवेश करने के लिए सर्वप्रथम सोपान पवित्र सम्यग्दर्शन है, इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते । हे भव्य ! सबसे पहले इस सम्यग्दर्शन को धारण करो, कविवर दौलतराम जी कहते हैं कि हे चतुर ! सुनो, समझो, चेत जाओ । व्यर्थ काल बर्बाद मत करो। क्योंकि यदि यह सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं हुआ, तो पुनः मनुष्य भव का मिलना दुर्लभ हो जाएगा। सम्यग्दर्शन धर्म का मूल स्तम्भ है। सम्यग्दर्शन के अभाव में न तो ज्ञान सम्यक् होता है और न चारित्र ही । इसीलिए सम्यग्दर्शन को मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है । सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र में अंक और शून्य का सम्बन्ध है | चाहे जितने भी शून्य हों, अंक के अभाव में उनका कोई महत्त्व नहीं होता । यदि शून्य के पूर्व एक ही अंक हो तो कीमत होती है। अंक उपरान्त शून्य से तो दशगुनी कीमत होती जाती है अर्थात् अंक के साथ शून्य होने पर अंक और शून्य दोनों ही का महत्त्व बढ़ जाता है। सम्यग्दर्शन अंक है और सम्यक् चारित्र शून्य । सम्यग्दर्शन से ही सम्यक् चारित्र का तेज प्रकट होता है । सम्यग्दर्शन रहित चारित्र तो उस अन्ध व्यक्ति की तरह है, जो निरन्तर चलना तो जानता है पर लक्ष्य का पता नहीं है । लक्ष्यविहीन यात्रा, यात्रा नहीं, भटकन है । इसीलिए आचार्य परम्परा ने सम्यग्दर्शन से ही मार्ग का प्रारम्भ कहा है । 456 :: जैनधर्म परिचय
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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