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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के लिए रमणीय हो भी नहीं सकता है। यदि महापुरुषों का जीवन-चरित्र वर्णन भी करते हैं, तो इसी स्वाधीनता के मार्ग को उन महापुरुषों ने भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में कैसे धैर्यपूर्वक अंगीकार किया है, का दर्शन कराया गया है। जीवों के परिणाम, कर्मबन्धन स्वरूप, त्रिलोक रचना आदि का वर्णन भी जीव को जगत से विमुख कराकर स्व-सन्मुखता के लिए ही है। खाना-पीना आदि की क्रिया के बदलाव से लेकर रागादि के परिहार का उपदेश भी आत्म रमणता रूप पुरुषार्थ के लिए ही है, और तत्त्व-द्रव्य व्यवस्था का ज्ञान भी स्वतत्त्वाभ्यासी होने मात्र के लिए ही कराया गया है। अर्थात् समग्र उपदेश मात्र स्वतत्त्व रसिक, स्वोन्मुख, स्वतत्त्व प्रीति, स्वतत्त्वप्रतीति, स्वतत्त्व विश्वास, स्वतत्त्वज्ञान एवं स्वतत्त्व रमणता रूप चारित्र-ध्यान की सिद्धि के लिए ही है। पर-तत्त्वों का ज्ञान भी 'उनमें मेरी चेतनता नहीं पाई जाती' कहकर निज चेतनरस लेने के लिए ही है। ___जहाँ चेतनता नहीं, वहाँ खोजने का प्रयास निराशा के अलावा कुछ नहीं दे सकता है, इसलिए चेतनता-जन्य आनन्द को चेतन में ही खोजने से खोज की सार्थकता और सुख की प्राप्ति का उपाय सफल होता आया है। आचार्य अकलंक देव ने 'सिद्धिविनिश्चय' में वृत्ति सहित कहा है आत्मलाभं विदर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात। नाभावं नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम्॥7/10॥ अर्थात् आत्मस्वरूप के लाभ का नाम मोक्ष है, जो कि जीव को अन्तर्मल का क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है। मोक्ष में न तो आत्मा का अभाव होता है, न ही आत्मा ज्ञानशून्य अचेतन होता है। मोक्ष में आत्मा का ज्ञान निरर्थक भी नहीं होता है; क्योंकि वहाँ भी यह जगत्त्रय को साक्षी भाव से जानता तथा देखता रहता है। जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य अपने स्व-पर प्रकाशकपने को नहीं छोड़ता वरन् अधिक स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है, उसी प्रकार कर्ममल का क्षय हो जाने पर आत्मा अपने स्व-पर प्रकाशकपने को नहीं छोड़ देता। आचार्य उमास्वामी रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' ग्रन्थ में सर्वप्रथम सूत्र द्वारा मोक्षमार्ग का स्वरूप निर्धारित किया गया है सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।। 1/1।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। औषधि के पूर्णफल की प्राप्ति के लिए जैसे उसका श्रद्धान, ज्ञान व सेवनरूप क्रिया आवश्यक है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों के मेल से उनके फल की प्राप्ति होती है। दर्शन और चारित्र का अभाव होने के कारण ज्ञान मात्र से, ज्ञानपूर्वक ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 455 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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