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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह राग आग दहै सदा, तारौं समामत सेइये। चिर भजे विषय-कषाय, अब तो त्याग निजपद बेइये। कहा रच्यो पर-पद में, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै। अब 'दौल' होउ सुखी, स्व-पद रचि, दाव मत चूको यहै। 6/15 वीतरागी जिनेन्द्रप्रभु के वचन राग से बचकर विरक्ति, वैराग्यपूर्वक वीतरागता की प्राप्ति के हैं। इसके लिए सम्यक् अभिप्राय से वस्तु को जानना, पहचानना ही राग के स्थान पर वैराग्य प्राप्ति का सच्चा साधन हो सकता है। जिनसे विरक्त होना अभिप्रेत है वे हैंहिंसाऽनृत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।। 7/1 तत्त्वार्थसूत्र, आचार्य उमास्वामी अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील (अब्रह्म) और परिग्रहों से विरक्ति ही व्रत है। जीवमात्र को प्रमादपूर्वक पीड़ाकारक (हिंसा), असत् स्वीकृति तथा वचन बोलना (असत्य, झुठ) अदत्त को लेना (स्तेय, चोरी) मैथुन परिणाम व कार्य (अब्रह्म, कुशील) तथा अपने अतिरिक्त पर वस्तुओं के प्रति मूर्छा (ममत्व परिणाम) रूप अन्तरंग रागादि तथा बहिरंग धन-धान्यादि (परिग्रह) ये पाँच पाप कहे गये हैं। इनसे विरक्ति ही व्रत है। ___ इन पाँचों पापों के होने में क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायें कारण हैं तथा इन कषायों के लिए राग-द्वेष कारण स्वरूप हैं। __इस तरह राग-द्वेष के कारण कषायें तथा कषायों के कारण पाँचों पाप होते हैं और इनसे जीव दुःखी होता है। दुःख से बचने के लिए पापों से, पापों से बचने के लिए कषायों से, कषायों से बचने के लिए राग-द्वेष से तथा राग-द्वेष से बचने के लिए मोह से बचना ही दुःख से बचने का उपाय है। इसी को अस्तिपरक विवेचन से देखा जाए तो स्वस्वरूप की प्रीति, प्रतीति व ज्ञान से सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान तथा इसी स्वस्वरूप में रमणता से सम्यक् चारित्र द्वारा उपर्युक्त सर्व पर-आसक्ति छूट जाती है और आसक्ति छूटने का नाम ही विरक्ति है। और आसक्ति छूटने पर उनका संयोग भी छूट सकता है। इसप्रकार पर संयोग विरहितता ही वीतरागता का स्वरूप है। वैराग्य भावनाएँ इसीलिए अत्यन्त उपयोगी हैं कि जिनसे यह जीव संसार, शरीर व भोगों के प्रति आसक्ति से बच जाता है। ____ अब इन संसार, शरीर व भोगों का स्वरूप क्रमशः अन्वेक्षणीय है, उनमें प्रथम संसार का स्वरूप विचारते हैं पंचपरावर्तन रूप भ्रमण-चक्र में पूर्वकृत पुण्य परिणामों के फलस्वरूप जीव को अनुकूल सामग्री, उच्च जाति, शरीर व निर्विघ्न सुविधाओं आदि की प्राप्ति होती है तथा पूर्वकृत पाप परिणामों के फल में जीव को प्रतिकूल सामग्री, नीच जाति, शरीर तथा ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 447 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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