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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org धन के प्रति रागी हुआ, अति तृष्णावान् हुआ, कुपात्रों को दान दिया, तो नीच - गतियों में गया, किन्तु अब इनसे बचने के लिए अर्हन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु, स्याद्वाद रूप परमागम, दयारूप धर्म, जिनमन्दिर का वैयावृत्य, दानादि, जिनसिद्धान्त व धर्म में प्रीति व वात्सल्य भाव ही धारण करना योग्य है । वात्सल्य से ही तप, दान, ध्यान, मतिश्रुत - ज्ञान की शोभा बढ़ती है, इसी से जिनश्रुत का सेवन कार्यकारी होता है। इस प्रकार मनुष्य भव के मण्डन रूप इस प्रवचनवत्सलत्व भावना को धारण करना चाहिए। उपसंहार—इस प्रकार ये सोलहकारण भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण होती हैं । सम्यग्दर्शन के साथ में सभी भावनाएँ मिलकर व अलग-अलग भी तीर्थंकर प्रकृति बन्ध में सहायक हैं, सम्यग्दर्शन के बिना तो सभी 15 मिलकर भी यह कार्य नहीं कर सकतीं, अतएव सम्यग्दर्शन या दर्शनविशुद्धि भावना ही सभी में शिरोमणि है तथा तीर्थंकर प्रकृति जगत् को कल्याणकारी व सर्वोत्कृष्ट पुण्य - प्रकृति होने से एक मात्र ऐसी कर्म प्रकृति है जो जगत्-वन्दनीय है । अतः जो भी जीव स्वर्ग-मोक्ष सुख को प्राप्त करना चाहते हैं, उन भव्यों को विधिपूर्वक निर्मल चित्त से हमेशा इन भावनाओं को भाना चाहिए, इनकी उपासना करनी चाहिए । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैराग्य भावना प्रत्येक जीव सुख की चाहत में है और इसके लिए नित्यप्रति प्रयासरत भी है; क्योंकि सुख प्राप्ति जीव का ही धर्म है। इस सुख प्राप्ति के प्रयास में प्रथम सुख का स्वरूप ही निर्धारणीय है । 'मनुः स्मृति' में सुख का स्वरूप इस प्रकार उल्लिखित हैसर्वं परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम् । एतद्विज्ञात्समासेन, लक्षणं सुख-दुःखयोः ॥ 4/160 अर्थात् परवशता ही सब तरह से दुःख रूप है, और स्ववशता अर्थात् स्वतन्त्रता ही सुख है । इस प्रकार संक्षेप में सुख व दुःख का लक्षण ही इतना-सा है I मात्र स्वाधीनता में सुख और पराधीनता में दुःख मानता है । अतः दुःख से बचने व सुख प्राप्त करने का सच्चा उपाय तो मात्र स्वाधीनता की प्राप्ति ही है । 446 :: जैनधर्म परिचय अनादि से जीव सुख की चाहत में स्वाधीन सुख की प्राप्ति पराधीनताओं (कर्म - उदय, संयोग व कर्म परिणामों) से प्राप्त समझता रहा है। जिनसे सुख प्राप्ति समझता रहा, उनके संग्रह, भोग आदि के लिए प्रयासरत भी रहा है, किन्तु ये सभी प्रयास अबतक पर की आश्रितता के ही रहे हैं और यह कार्य रागवृद्धि रूप ही फलित हुआ है। राग, रक्तता, आसक्ति, अनुराग, रति ये सभी लगभग एकार्थवाची हैं, जो कि वास्तव में दुःख स्वरूप, दुख के कारण व सुख से विपरीत हैं । कविवर दौलतरामजी 'छहढाला' में लिखते हैं For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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