SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 7. आस्रव - आनन्दमयी शाश्वत निज चैतन्य स्वरूप की रुचि व एकाग्रता से जीव आनन्द भोगता है। ऐसे स्वभाव को भूलकर जब यह जीव अपने से भिन्न पर तथा मलिन विभाव भावों से प्रीति या एकत्व जोड़ता है, तब जीव के संयोग में कर्म पुद्गलों का आगमन चालू हो जाता है, यही कर्मों का आस्रव है तथा बन्ध का कारण है । इसलिए ऐसे पर पदार्थ व परभाव कभी भी अपनाने योग्य या हितकारी मानने योग्य नहीं हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन आस्रवों के दो भेद प्रसिद्ध हैं- शुभास्रव तथा अशुभास्रव । ये दोनों ही संसार में दाखिल कराने के द्वार हैं । मुक्ति मार्ग के लिए तो ये बाधक ही हैं । जैसे समुद्र के बीच जहाज में छिद्रों से जल प्रवेश करता है, उसी प्रकार ये 57 भेद युक्त आस्रव, कर्मों के आने के द्वार हैं । 8. संवर - जैसे समुद्र के बीच में ही नाव में जल आने का छिद्र बन्द कर दें तो नाव में जल प्रविष्ट न हो पाये, उसी प्रकार संसार समुद्र के मध्य में ही स्व-स्वरूप की रुचि - प्रीति से बलिष्ठ होकर जीव प्रविष्ट होते हुए कर्मों के आस्रव को रोक देता है । कर्मों का आगमन रुक जाना ही संवर है । इसका उपाय मात्र स्वरूप सौन्दर्य की पसन्दगी ही है 1 तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी ने लिखा है आस्रवनिरोधः संवर: 9/1, सगुप्ति-समिति-धर्म- अनुप्रेक्षा - परिषहजय चारित्रै: 9/2 अर्थात् आस्रव का रुक जाना ही संवर है और वह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र के द्वारा होता है । 9. निर्जरा - स्व-स्वरूप की रुचि, प्रीति, अनुभव से कर्मों का आस्रव रुक जाने पर अर्थात् संवरपूर्वक पूर्वबद्ध कर्मों का तप की शुद्धता के बल से झड़ने लग जाना ही प्रतिसमय असंख्यात गुणी वृद्धिंगत निर्जरा है । यद्यपि कर्म - निर्जरा तो उदय पाकर मोही अवस्था में भी होती है, किन्तु वह कर्म - निर्जरा जब अज्ञानता से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि के कारण पुनः बन्ध की कारण हो जाती रही है, तो वह सविपाक निर्जरा कहलाती है। जीव को लाभ तो इसी में है कि बँधे हुए कर्म पुनः बन्धन के कारण तो न बनें, और स्वरूप स्थिरता की आनन्द दशा के कारण निर्जरित (निकलते) होते जायें, ऐसी अविपाक निर्जरा से जीव निर्भार होता जाता है और इसप्रकार मुक्ति मार्ग का राही होकर मोक्ष - लक्ष्मी के वरण का पात्र हो जाता है । 10. लोक - जड़-चेतन पदार्थों से भरा हुआ अनादि-निधन, अकृत्रिम, निश्चल असंख्यात - प्रदेशी लोक स्वयं व्यवस्थित है। इसका कोई बनाने वाला, संरक्षण करने वाला, बदलने वाला या विनाश करने वाला नहीं है। इस लोक में रहने वाले षट् द्रव्य 432 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy