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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धान्त के अविरोध द्वारा तत्त्व का समर्थन करने के लिए उसके जो तर्क, नय और प्रमाण की योजना रूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञा विचय कहा जाता है। आज्ञा विचय तत्त्वनिष्ठा में सहायक होता है। (2) अपायविचय-मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्ध पुरुष के समान सर्वज्ञ-प्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्ग का परिज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्याग देते हैं। इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिन्तवन करना, अथवा ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र से कैसे दूर होंगे,- इसप्रकार चिन्तन करना अपाय विचय धर्म्यध्यान हैं। अपायविचय संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति उत्पन्न करता है। (3) विपाकविचय-जीवों को जो एक और अनेक भवों में पुण्य और पाप कर्म का फल प्राप्त होता है, उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्ष का चिन्तन करना विपाक विचय है। विपाक विचय से कर्मफल और उसके कारणों की विचित्रता का ज्ञान दृढ़ होता है। (4) संस्थान विचय-तीन लोकों का आकार, प्रमाण, आयु, द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप का चिन्तन करना संस्थान विचय है। संस्थानविचय से लोक स्थिति का ज्ञान दृढ़ होता है। उक्त के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी धर्म्यध्यान के चार भेद किए जाते हैं(1) पिण्डस्थ, (2) पदस्थ, (3) रूपस्थ और (4) रूपातीत।। (1) पिण्डस्थ-शरीर स्थित आत्मा का चिन्तवन पिण्डस्थ ध्यान है। जड़ पुद्गलमयी शरीर व कर्मादि संयुक्त अवस्था में तथा राग-द्वेष आदि विकारी परिणामों में भी अपने जीवत्व को ज्ञानादि चैतन्य लक्षण विचार करना पिण्डस्थ ध्यान है। पदस्थ-अर्हन्त आदि पंचपरमेष्ठी वाचक अक्षरों व मन्त्रों का अनेक प्रकार से विचार तथा तदनुसार उनके स्वरूप का एकाग्र होकर चिन्तन करना पदस्थ ध्यान है। शुद्ध होने के लिए शुद्ध-आत्माओं का स्वरूप चिन्तवन कर्मरज को दूर करने वाला है। (3) रूपस्थ-सर्व चिद्रूप का चिन्तवन, निज आत्मा का पुरुषाकार आदि रूप में विचार करना रूपस्थ ध्यान है, अथवा समवसरण में विराजमान अष्ट प्रतिहार्य, अनन्तचतुष्टय रूप से सुशोभित अर्हन्त भगवान का चिन्तन भी रूपस्थ ध्यान में समाहित है। (4) रूपातीत-निज निरंजन त्रिकाली शुद्धात्मा का ध्यान रूपातीत ध्यान है। विचार (2 ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 425 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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