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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (4) परिग्रहानन्दी-इसका दूसरा नाम विषय-संरक्षणानन्द भी है। चेतन अचेतन रूप परिग्रह में 'यह मेरा परिग्रह है', 'मैं इसका स्वामी हूँ', इसप्रकार ममत्व रखकर, उसके अपहरण करने वाले का नाशकर, उसकी रक्षा करने के संकल्प का बारम्बार चिन्तवन करना विषय संरक्षणानन्द या परिग्रहानन्द नाम का रौद्रध्यान है। उक्त चतुर्विध रौद्रध्यान के परिणामों में जीव आनन्दित महसूस होता है, किन्तु इन रौद्रध्यान के परिणामों में नरक-जैसी दुःखदायी गतियों का आस्रव होता है अर्थात् ये रौद्रध्यान नरक गति के कारण हैं। 3. धर्म्यध्यान-धर्म से युक्त ध्यान धर्म्यध्यान है, राग-द्वेष को त्यागकर, अर्थात् साम्यभाव से जीवादि पदार्थों का, वे जैसे-जैसे अपने स्वरूप में अवस्थित हैं, वैसेवैसे ध्यान या चिन्तवन करना धर्म्यध्यान कहा गया है। पंचपरमेष्ठी की भक्ति, पूजा, दान, अभ्युत्थान तथा विनय आदि शुभानुष्ठान बहिरंग धर्म्यध्यान के चिह्न हैं। विषय लम्पटता, निष्ठुरता, क्षुब्ध चित्त रूप कषायोत्पादक परिणामों से विपरीत वैराग्यरस से भरपूर, तत्त्वज्ञानरत जीवन, परिग्रह-त्याग-युक्त साम्यभाव और परीषहजय के परिणामों से धर्म्यध्यान होता है। धर्म्यध्यान से युक्त जीव निरन्तर प्रसन्नचित रहता है। बाह्य प्रसंगों की अनुकूल-प्रतिकूलता में चित्त दोलायमान नहीं होता संसार शरीर, भोगों से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव को स्थिर बनाये रखने के लिए सम्यग्दृष्टि जीव का जो प्रणिधान (महान प्रयत्न) होता है, उसे धर्म्यध्यान कहते हैं। यह उत्तम क्षमादि धर्म से युक्त होता है, इसलिए धर्म्यध्यान कहलाता है। निमित्त भेद से धर्म्यध्यान चार प्रकार का बताया गया हैआज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्।।9/36 आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इन की विचारणा के निमित्त से मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है। (अ) आज्ञाविचय-उपदेश देने वाले आचार्यों की दुर्लभता होने से, स्वयं मन्दबुद्धि होने से, कर्मों का उदय होने से, और पदार्थों के सूक्ष्म होने से, तत्त्व के समर्थन में हेतु तथा दृष्टान्त का अभाव होने से, सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण करके 'यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते' इस प्रकार गहन पदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है अथवा स्वयं पदार्थों के रहस्य को जानता है, और दूसरों के 424 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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