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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दान देता है वह सोलहवें स्वर्ग की लक्ष्मी को प्राप्त कर तीर्थंकर चक्रवर्ती के वचनातीत सुखों को प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन से रहित होने पर भी जो एक बार सत्पात्र को दान देता है, वह दान के प्रभाव से भोगभूमि के सुखों को प्राप्त कर स्वर्ग जाता है, इसलिए सद्ग्रहस्थ को हमेशा शक्ति के अनुसार दान देना चाहिए। उत्कृष्ट पात्र दान से उत्कृष्ट भोगभूमि, मध्यम पात्र दान से मध्यम भोगभूमि, जघन्य पात्र दान से जघन्य भोगभूमि प्राप्त होती है। सुपात्र में लगाया गया धन परलोक में अनन्त गुना फलता है। कुपात्र दान से कुभोगभूमि एवं अपात्रदान से दुर्गति की प्राप्ति होती है। __ उत्तम आकिंचन्य- 'अकिंचनस्य भाव: आकिचन्यं' -अकिंचनपने का भाव आकिंचन्य है। जिसके पास कुछ नहीं बचा, वह अकिंचन कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जिसके हृदय में परद्रव्य के प्रति परमाणुमात्र भी राग है वह व्यक्ति भले ही सारे आगमों का ज्ञाता हो, किन्तु वह आत्मा को भली प्रकार नहीं जानता। वह व्यक्ति राग और द्वेष-रूपी दो दीर्घ रस्सियों से खींचा जाता हुआ अत्यन्त चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है। अतः सांसारिक पदार्थों के प्रति राग-द्वेष का त्याग आवश्यक है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्त संज्ञानः। रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः। 47 ।। मोहान्धकार नष्ट हो जाने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को प्राप्त साधु राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र को प्राप्त होता है, इस प्रकार का मोह, राग तथा द्वेष की निवृत्ति आत्मोपलब्धि के लिए अत्यावश्यक है, यह निवृत्ति उत्तम आकिंचन्य धर्म प्रकट करने से होती है। परिग्रह-उपकरणों के देखने से उस ओर उपयोग लगाने से उनमें मूर्छभाव रखने से तथा लोभ कर्म की उदीरणा होने से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है। अन्तरंग परिग्रह के भेद मिथ्यात्व वेद रागस्तथैव हास्यादयश्च षड्भेदाः। चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ।। 13 ॥ अर्थ-मिथ्यात्व, स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद का राग, इसी तरह हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह दोष और चार कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण ओर संज्वलन ये चार कषाय इस प्रकार अन्तरंग परिग्रह के चौदह भेद हैं। बहिरंग परिग्रह के भेद पर्युषण पर्व :: 419 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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