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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान आदि के द्वारा शरीर को कष्ट देना), यह छह प्रकार की क्रियाएँ चूँकि बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा से होती हैं, सबको प्रत्यक्ष होती हैं, अतः इनका बाह्य तप कहते हैं।। प्रायश्चित् (दोषों की शुद्धि करना), विनय (त्यागियों का आदर करना), वैयावृत्य (त्यागियों की सेवा करना), स्वाध्याय, व्युत्सर्ग (परिग्रह का त्याग करना), और ध्यान (मन की चंचलता को रोककर मन को केन्द्रित करना) ये छह अन्तरंग तप हैं। (तत्त्वार्थसूत्र) तप चाहें सुर राय, करम शिखर को वज्र है। द्वादश विध सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम॥5॥ दशधर्म स्कन्ध, पृ. 147 उत्तम त्याग- सम्यक् प्रकार से श्रुत का व्याख्यान करना और मुनि इत्यादि को पुस्तक, स्थान तथा पीछी-कमंडलु आदि संयम के साधन देना सदाचारियों का उत्तम त्याग धर्म है। इसमें यह भावना होती है कि मेरा कुछ भी नहीं है। बारस अणुवेक्खा में कहा गया णिव्वेगतियं भावइ मोहं चाइऊण सव्व दव्वेसु। जो तस्स हवेच्चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहि78 ।। जो समस्त द्रव्यों के प्रति मोह छोड़कर संसार, शरीर और भोगों के प्रति विरक्ति की भावना रखता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। - बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ना त्याग कहलाता है। -- ज्ञान, संयम और शौच के उपकरण साधु को प्रदान करना त्याग कहलाता है। - आत्मा के अहित करने वाले विषय कषाय का छोड़ना त्याग ाता है। - राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विकार भावों को छोड़ना त्याग कहलाता है। - आत्मा से भिन्न बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्ट कल्पना का छोड़ना त्याग कहलाता है। - तीन प्रकार के पात्रों को चार प्रकार का आहार देना त्याग कहलाता है। - इसलोक-परलोक में फल प्राप्ति के लिए धन का व्यय करना त्याग कहलाता है। दान के योग्य सात क्षेत्र जिनबिम्ब जिनागारं, जिनयात्रा प्रतिष्ठितम्। दानं पूजा च सिद्धान्त- लेखनं क्षेत्र सप्तकम् ॥ 47 ।। दशधर्म स्कन्ध, पृ. 158 अर्थ- जिन प्रतिमा, जिन मन्दिर, जिन यात्रा, प्रतिष्ठा, चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान, पूजा, सिद्धान्त के लेखन इन सात क्षेत्रों में दान देना चाहिए। दान का फलदानियों की इस लोक में कीर्ति, प्रताप, भाग्य वृद्धि इत्यादि फल की प्राप्ति, परभव में भोगभूमि के भोगों को भोगकर स्वर्ग को प्राप्त होता है, किन्तु जो सम्यग्दृष्टि सत्पात्र को 418 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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