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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भी दूसरे जीवों का तिरस्कार करने वाले अभिमान का अभाव होना मार्दव कहलाता है। उत्तम जाति, उत्तम कुल, उत्तम रूप, विशिष्ट ज्ञान का क्षयोपशम उत्तम प्रभुता, उत्तम बल, उत्तम तप, उत्तम ऐश्वर्य इन से उत्पन्न होने वाले मान का जो खण्डन करते हैं, विद्वान् उसको मार्दव धर्म कहते हैं। मार्दव धर्म के बिना साधु भी असाधु हो जाता है, साधु के मार्दव धर्म ही परम गुण है, मार्दव धर्म तीनों लोकों में सुख का खजाना स्वरूप है। मार्दव धर्म से भूषित मनुष्य मूर्ख भी पंडित कहा जाता है, अट्ठाईस मूल गुणों के धारक साधुओं के मार्दव धर्म आभूषण स्वरूप है, और गृहस्थ भी मार्दव धर्म के प्रभाव से सप्त धातु से रहित सुन्दर शरीर का धारक देव होता है, वहाँ से च्युत होकर मनुष्य होता है और मुनिव्रत को धारण कर मुक्तिरमा का स्वामी होता है। __मान श्रेष्ठ आचरण को नष्ट कर देता है, जैसे मेघ, सूर्य के तेज को लुप्त कर देता है, मान, विनय को नष्ट कर देता है, जैसे सर्प प्राणियों के जीवन को नष्ट कर देता है, मान, कीर्ति को नष्ट कर देता है, जैसे हाथी कमलिनी को जड़ से उखाड़ कर नष्ट कर देता है, उसी प्रकार मान मनुष्य के त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) को नष्ट कर देता है, जैसे नीच पुरुष उपकार के समूह को नष्ट कर देता है। __उत्तम आर्जव– 'ऋजोर्भावः आर्जवम्'- ऋजुता अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है। आर्जव का विपरीत माया है। जो प्राणी मन, वचन, काय से कुटिलता न रखता हो वही आर्जव धर्म को पाल सकता है। कहा है- महात्माओं का कार्य मन, वचन और काय से एक होता है तथा दुरात्माओं के मन में कुछ और होता है, वचन से कुछ और बोलते हैं तथा कार्य में कुछ अन्य आचरण करते हैं। आचार्य पद्मनन्दि देव ने कहा है मायित्वं कुरुते कृतं संकृदपिच्छायाविघातं गुणेष्वाजातेर्यमिनोऽर्जितेष्विह गुरुक्लेशैः श्यामदिष्वलम् ॥ सर्वे तत्र यदासते विनिभृता क्रोधादयस्तत्त्वत स्तत्पापवत येन दुर्गतिपथे जीवश्चिरं भ्राम्यत। 90 ॥ यदि मुनि द्वारा एक बार भी मायाचारी की जाए तो वह बड़ी कठिनाई से संचित किए हये उसके अहिंसादिक गुणों को ढक देती है। उस मायाचाररूपी मकान में क्रोधादि कषायें भी छिपी रहती हैं, उस मायाचार से उत्पन्न हुआ पाप जीव को अनेक प्रकार की दुर्गतियों में भ्रमण कराता है। 'ऋजोर्भाव आर्जवं' सरल भाव आर्जव कहलाता है। जो चिंतेइ ण वंक, ण कुणदि वंकण जंपदे वंक। ण य गोवदि णियदोसं, अज्जवधम्मो हवे तस्स ॥ 2 ॥ 414 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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