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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयसार का जीवाजीवाधिकार मुख्यतः भेद-विज्ञान का अधिकार है, जीव व अजीव तत्त्वों का जैसा सूक्ष्म-विश्लेषण इस अधिकार में है, वैसा अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आया। इसमें शुद्ध जीवपदार्थ का अजीवपदार्थों से भेद-ज्ञान कराते हुए यहाँ तक कह दिया गया है कि एक निज शुद्धात्म-तत्त्व के सिवाय अन्य समस्त पर-पदार्थ अजीव तत्त्व हैं। जड़-अचेतन पदार्थ तो अजीव हैं ही, अन्य अनन्त जीव राशि को भी निज ज्ञायकस्वभाव से भिन्न होने के कारण अजीव-तत्त्व के रूप में गिना है तथा अपने आत्मा में उत्पन्न होने वाले क्षणिक क्रोधादि विकारीभावों तथा मति-श्रुतज्ञानादि अपूर्ण पर्यायों को भी अपने त्रिकाल परिपूर्ण ज्ञायक स्वभाव से भिन्न होने के कारण अजीव-तत्त्व कहा है। ऐसा जीव नामक शुद्धात्मतत्त्व देह एवं रागादि औपचारिक भावों से भिन्न हैयह बात स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि-"चैतन्यशक्ति से व्याप्त जिसका सर्वस्व सार है, ऐसा यह जीव इतना मात्र ही है। इस चित्शक्ति से अन्य जो भी औपाधिक भाव हैं, वे सभी पुद्गलजन्य हैं, अतः पुद्गल ही हैं।" उन पौद्गलिक और पुद्गलजन्य भावों का उल्लेख करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जीव के वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श नहीं हैं; शरीर, संस्थान, संहनन भी नहीं हैं; तथा राग, द्वेष, मोह, कर्म व नोकर्म भी नहीं हैं; वर्ग, वर्गणा और स्पर्धक भी नहीं हैं; अध्यात्म के स्थान, अनुभाग के स्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, जीवस्थान, गुणस्थान आदि कुछ भी जीव के नहीं हैं; क्योंकि ये सब तो पुद्गलद्रव्य के परिणाम होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। जीव तो परमार्थ से चैतन्य-शक्ति-मात्र है। __ गुणस्थानादि को यद्यपि व्यवहार से जीव कहा गया है, पर वे सब वस्तुतः ज्ञायक स्वभाव से भिन्न होने से जीव के भाव ही नहीं हैं और जीव-स्वरूप भी नहीं हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी इसी बात पर अपनी मुहर (छाप) लगाते हुए कहा है कि'वर्णादिक व रागादिक भाव आत्मा से भिन्न हैं, इसलिए अन्तर्दृष्टि से देखने वाले को ये-सब दिखाई नहीं देते। उसे तो मात्र एक चैतन्यभावस्वरूप सर्वोपरि आत्म-तत्त्व ही दिखाई देता है। ___ जीव का वास्तविक लक्षण तो चेतना मात्र है। अस्ति से कहें, तो वह ज्ञान-दर्शनमय है और नास्ति से कहें, तो वह अरस, अरूप, अगन्ध और अस्पर्शी है। तथा पुद्गल के आकार रूप नहीं होता, अत: उसे निराकार व अलिंगग्रहण कहा जाता है। आत्मा के ऐसे स्वभाव को न जाननेवाले अज्ञानीजन पर का संयोग देखकर आत्मा से भिन्न पर-पदार्थों व पर-भावों को ही आत्मा मानते हैं; इस कारण कोई राग-द्वेष को, कोई कर्म-फल को, कोई शरीर को और कोई अध्यवसानादि भावों को ही जीव मानते हैं। जबकि वस्तुत: ये-सब जीव नहीं हैं, क्योंकि ये सब तो कर्म-रूप पुद्गलद्रव्य 402 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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